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पोयूपपिणी-टीका सू २७ भगयदन्तयासिवर्णनम् इब गुत्तिदिया, पुरखरपत्त व निरुवलेवा, गगणमिव निरालवणा, यथा प्रतिविम्बितान मुग्वायरयवान् यथारस्थित प्रकटीकुति, तथा यन्नदशनया जनाना चित्तपणे जीवानीगरिमालपटाया पुस्पष्ट प्रकागते इयर्थ । 'कुम्मो इव गुतिदिया' कूर्म दर गुप्लेन्द्रिया-मों यथा भयहतौ मनि मनृतमन्द्रियो भनि तथा समारभ्रमणमयाद गुमानि-विपरस्पायेभ्य नाषितानि इन्द्रियागि पा ते गुप्तेन्द्रिया । 'पुरम्वरपत्त व निरवलेवा' पुष्पामिव निम्पलपा -यथा कमलपत्र निर्लिप्त सत् जोपरि निष्ठति तथा निस्पल्पा-पट्पजन्तुन्यस्वजनविषयमम्बन्परहिता भवन्तीति भाव । 'गगणमिव निरालपणा' गगनमिन निगलन्धना -कुनामनगगद्यालम्बनवर्जिता , जीपाजावानिषियक देयाना ऐसी होती था कि जिससे मनुष्यों के चित्तरूपी दर्पण में उत्पादादि-स्वभाव वाले समस्त जावादिक पदार्थ अच्छी तरह-स्पष्टरूप से प्रतिभासित होने लगते थे । (कुम्मो इव गुतिदिया) कच्छप जिम प्रकार भय क कारणां क उपस्थित होने पर ममस्त इन्द्रियां को नगोपिन कर लता है उसी प्रकार ये मुनिजन भी समारपरिभ्रमण क भयसे विषय-कपायों का ओर से अपनी २ इन्द्रियों को सुरक्षित किये हुए रहते थे। (पुरखरपत्तव निरवलेवा) जिस प्रकार कमलपत्र ज? मे निलिम होकर उम के ऊपर रहता है और कीचड से छपन्न होने पर भी जैसे वह उसके स्पा से हित होता है उसी प्रकार ये साधुजन भा कीचड एप जलतुन्य स्वजन, एर विषया के सब से बिलकुल रहित थे । (गगणमिव निरावणा) आकाग की तरह ये कुल, ग्राम और नगर आदि के महारे की अपेक्षा नहीं रखते य। (जणिलो इव निराग्या) पवन की तरह घर આદિક પદાર્થોને પ્રકટ કરતા હતા તેમની અવાજીવાદિ વિષયની દેશના એવી વતી હતી કે જેથી મનુષ્યના ચિત્તરૂપી દર્પણમાં ઉત્પાદ આદિ સ્વભાવવાળા સમસ્ત જીવાદિક પદાર્થ સારી રીતે સ્પષ્ટરૂપે પ્રતિભારિત થતા હતા (कुम्मो झ गुत्तिनिया) यवो म अयना हार। सावी ५७ मभन्त ઈઢિઓને નગેપિત કરી લે છે તેમ એ મુનિજને પણ આ સાર–પરિભ્રમણના ભયથી વિષયપાની તરફથી પિતપનાની ઈઝિઓને સુરક્ષિત રાખતા હતા (पुस्सरपत्त व निम्नलेला)भ उभग सथी निGिH 4न तेनी 6५२ હે છે અને કીચડથી ઉત્પન્ન થાય છે તે પણ જેમ તે તેના સ બ ધથી રહિત હોય છે તેવી જ રીતે સાધુજન પણ કીચડ તેમ જ જલતુલ્ય पान तेभ द विपयाना सपथी मिस २डित हुता ( गगणमिव निरा लपणा) माताशनी पे तसा मुण, गाम मन ना माहिना मायनी