SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1072
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियदर्शिनी टीका म० १४ नन्ददत्त नन्दप्रियादिपजीवचरितम् मनसि कुर्यादत आह-'ण जीवियहा' इत्यादि-हे ब्राह्मणी ! अह हि जीविवार्थम् = असयमजीवननिमित्त-' भवान्तरे मनोतशब्दादिविपयाणा प्राप्ति र्भवतु' इत्येतदर्थे भोगान् न प्रनहामि परित्यजामि । किन्तु लाभम् अभिमतवस्तु: माप्तिरूपं, चलाभम् तदभावरूप च, तया-मुग्वम्, दुखः सविक्ष्यमाणः साम्येन पश्यन् लामालाभसुखदुःखजीरितमरणादिपु समतामेर भारयन् मौन-मुनिभाव चरिष्यामि पुनिभानमाश्रित्य विहरिप्यामि । मम दीनापतिपत्तिर्मुक्त्यर्थमेन, न तु भाविजन्मनि मनोज्ञशन्दादिपिपयप्राप्त्यर्थमिति मूत्राशयः ॥ ३२॥ नहीं है तो इसका उत्तर इस प्रकार है कि (ण जीवियट्ठा पजहामि भोएतो जीवितार्थ प्रजामि भोगान् ) म भवान्तरमें "मुझे मनोज शब्दादिक विपयोंकी प्राप्ति हो" इस रूप असयमित जीवन के निमित्त इन भोगोंका परित्याग नहीं कर रहा ह फिन्तु (लाभं अलाम च मुह च दुक्स सवि. क्खमाणो-लाभ अलाम च सुख च दुख सवीक्षमाणः) वाछित वस्तुकी प्राप्ति अयचा उसकी अप्राप्तिल्प जो लाभ एवं अलाम है तथा जो सुख एव दुःख है उनमे समताभावका अवलम्बन करके मैं (मोण चरिस्सामिमौन चरिष्यामि) मुनि होना चाहता हू ॥ भावार्थ-मैंने रसोका खूब अनुभव कर लिया है। अनुभव करते २ ही यह युवावस्था मुझसे विदा लेनेको जा रही है। अतः में चाहता हू कि जबतक यह युवावस्था पूरी नहीं हो जाती है, इसके पहिले में मुनि दीक्षा धारण करलू । यह म परलोकमें पाच इन्द्रियों सबधि सुखादिकॉकी प्राप्तिके निमित्त नहीं धारण करना चाहता है, किन्तु मुक्तिके निमित्त ही उत्तर में प्रभारी छ, ण जीवियदा पजहामि भोए-नो जीवितार्थ प्रजहामि भोगान् सपान्त२५" भने मनास शहाहि विषयानी पारित था ... આ પ્રકારના અ યમિત જીવનના નિમિત્તે આ ભેગેને પરિત્યાગ કરી રહ્યો नथी लाभ अलाभ च सुह च दुक्य सपिक्समाणो-लाभ अलाम च सुस च दुस सवीक्षमाण पाछित परतुनी प्राति अथवा तनी मास्ति३५ am. અને અલાભ છે તથા જે સુખ અને દુ ખ છે તેમાં સમતાભાવનું અવલબન उशन हु मोण चरिस्सामि-मोन चरिप्यामि मुनि या या छ ભાવાર્થ–મે રસેને ખૂબ અનુભવ કરી લીધું છે, અનુભવ કરતા કરતા આ યુવાવસ્થા મારાથી વિદાય લેવાની તૈયારીમાં છે આથી હુ ચાહું છું કે, આ યુવાવસ્થા પૂરી ન થઈ જાય તે પહેલા હુ મુનિ દીક્ષા ધારણ કરી લઉ આને હું પર લેકમા પાચ ઈન્દ્રિયે સબધી સુખાદિકની પ્રાપ્તિના નિમિત્તે ધારણ કરવા ચાહત उ० १०८
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy