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प्रतिपद्यामहे अङ्गीकुम: अगीकरिष्यामः य धर्म प्रपन्नामाश्रिताः वर्ष न पुनभवामः जन्मजरामरणादिदुःखसालितमिम चतुर्गतिफससार न पुनः मापस्याम इति भावः । किं च मनोरमपिपयोपभोगार्थमपि गृहावस्थान न युक्तम् इत्यार'अणागय' इत्यादिना च-पुनः अनादारस्मिन् ससारे किंचिदपि, अनागतम्अमाप्तम् अनुपभुक्त नैवास्ति, किन्तु सर्वमुपभुक्तमेवास्ति । अतस्तदुपभोगलालसा न कार्या । किन्तु रागसजनादिस्नेह पिनीय-परित्यज्य अद्वया श्रद्धापूर्वक धर्मानुष्ठान कर्तुं न अस्माफ क्षम-युक्त, श्रेय इत्यर्थः ॥ २८॥ , अद्यैव धर्म प्रतिपद्यामाहे ) जय कि मृत्युकी सभावना सर्वदा विद्यमान है, तो आजी यतिधर्मको अगीकार करेंगे। (जहिं पवण्णा-य प्रपन्ना.) जिसके धारण करने वाले हमलोग (न पुणभवामो-न पुनर्भवाम.) फिर से इस जन्म, जरा, एच मरण आदि दुःखोंसे सवलित इस चतुर्गति रूप ससारमें पुनः अवतरित नहीं होंगे। इस अनादि ससारमें (अणागय किंचि नेव अस्थि-अनागत किंचित् नैव अस्ति) कोई भी वस्तु अना गत-अप्राप्त-अनुपभुक्त नहीं हैं। सर्व ही उपभुक्त हैं। अतः उच्छिष्ट अर्थात् जूठाको पुनः सेवन करने की लालसा श्रेयस्कर नहीं है। श्रेयस्कर तो (न.) हमलोगोंको अब एक यही है कि हमलोग (राग-रागम) स्वजनादिकका स्नेह (विणइत्तु-विनीय),छोडकर (सद्धाखम-श्रद्धाक्षमम्) शापूर्वकधर्मा नुष्ठान करे । तात्पर्य यह हैं कि-जब कि समारमें जो कि अनादिकालसे इस जीवके पीछे लगा आरहा है कोई वस्तु अनुपभुक्त-विना भोगी नहीं है तो फिर उमको भोगने के लिये गृहस्थावास अगीकार करना उचित धर्म प्रति पद्यामहे यारे मृत्युन। भय सहा सब विधमान छ' भार or यतिधर्मना भीर रीशु जहि पवण्णा-य "प्रपन्ना रेने धारण ४२ ना२ मापणे न पुणब्भवामो- न पुनर्भवाम' शथी भ, on A२ भ२५३५
અત્યત દુખેથી સ કળાએલ આ ચતુતિરૂપ સ સારસાગરમાં અવતરવું ५. नही मा मनाहि ससारमा अणागय किंचि नेव अस्थि-अनागत किश्चित् नैव अस्ति । पY परतु अनार-मास्य-मनुषभुत नयी स भुत છે આથી ઉચ્છિષ્ટનુ ફરીથી સેવન કરવાની લાલસા શ્રેયસ્કર નથી શ્રેયસ્કર al न माप भाट ४ ४ छ, राग-रागम् २१मान २७ विणइत्तु-विनीय छोडी सद्धाखम-श्रद्धाक्षमम् श्रद्धापू धर्मानु न ! शम તાત્પર્ય એ છે કે, જ્યારે અનાદિકાળથી સ સારમા આ જીવની પાછળ જ જે લાગી રહેલ છે, અને તેને કઈ વસ્તુ અનુપમુક્ત નથી તે પછી એને મેળવવા માટે ગૃહસ્થાવાસને સ્વીકાર કરે તે ઉચિત નથી ઉચિત તે એક એજ છે કે, સ્વ