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________________ उत्तराध्ययनस्ने वायकारणरूप जैनदर्शन, यद्वा - न्याययुक्त मार्गे सम्यग्दर्शनादिरूप मार्ग= मोक्षमार्ग खुला परिभ्रश्यन्ति =मोक्षमार्गात् प्रच्युता भवन्ति । अत्र दृष्टान्ताः -- जमालिमभृतयो निहवाः । अथ के ते जमालिमभृतयः ? इत्युच्यते - जमालिमभृतयः सप्त प्रवचन निहता:मिथ्यात्वाभिनिवेशाज्जिनोक्ततच्चापलाप कास्त्यक्तसम्यग्दर्शना जभूवन् । तत्र जमालि: प्रथमः, स बहुरतः - बहुषु समयेषु रतः सक्तः, प्रभूतसमयैः कार्योत्पत्तिर्भचति, नत्वेकेन समयेनेति रूपयति ॥ १ ॥ विप्यगुप्तौ द्वितीय -स जीनमदेशिक - जीवः प्रदेश एव यस्य स जीवमदेशः, स एव जीवमदशिक, चरमप्रदेश एव जीव इति प्ररूपयति ||२|| तृतीय आपाढः स तु अव्यक्तिकः, अव्यक्तम् - अस्फुटं वस्तु (नेयाउय मग्ग-नैयायिक मार्ग ) पचसमवाय कारणवादरूप जैनदर्शन को, अथवा सम्यग्दर्शनादिरूप न्याययुक्त मार्ग मोक्षमार्ग को ( सोच्चाश्रुत्वा ) सुनकर भी उसमें श्रद्धानही होने से (परिभस्सइ - परिभ्रश्यन्ति) उस मोक्षमार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं इसलिये श्रद्धा को दुर्लभ बतलाई है। ६४२ इस विषय मे दृष्टान्तस्वरूप जमालि निहव आदि समझना चाहिये । जमाल आदि कौन हैं ? इस विषय को यहां प्रदर्शित किया जाता है। ये जमालि आदि सात व्यक्ति निह्नव-प्रवचन को छिपाने वाले हुए हैंमिथ्यात्व के अभिनिवेश से जिनोक्त तत्त्व के अपलापक- सम्यग्दर्शन से रहित हुए हैं। इनमे सर्वप्रथम जमालि हुए हैं, इनकी मान्यता यह है कि अनेक समय से द्रव्य की उत्पत्ति होती है, एक समय से नहीं' द्वितीय निह्नव तिष्यगुप्त हुए हैं, इनकी ऐसी मान्यता है कि जीवका एक अन्तिम प्रदेश ही जीवस्वरूप है रे । तृतीय निह्नव आषाढ हुए हैं, इनकी मग्ग- नैयायिक मार्ग पाय સમવાયકારવાદરૂપ જૈનદર્શનને અથવા સમ્યગ્ दर्शनाहिय न्याययुक्त भाग- भोक्ष भागने सौ सोच्चा-थत्वा सालजीने पा मेनाभा श्रद्धा न होवाथी परिभस्सइ - परिभ्रश्यन्ति मे भोक्षमार्गथी भ्रष्ट थर्ध જાય છે. આ માટે શ્રદ્ધાને દુર્લભ બતાવેલ છે આ વિષયમા દૃષ્ટાંતસ્વરૂપ જમાલ નિદ્ભવ આદિ સમજવા જોઇએ જમાલિ આદિ કાણુ હતા એ વિષયને અહિં પ્રદર્શિત કરવામા આવે છે. એ જમાલિ આદિ સાત વ્યક્તિ પ્રવચનિવ છુપાવવાવાળા હતા મિથ્યાત્વના અભિનવેશથી જીનાસ્ત તત્વના અપલાપક – સભ્યશૃશનથી રહિત હતા એમા સર્વ પ્રથમ જમાલિ હતા એમની માન્યતા એ હતી કે અનેક સમયેથી દ્રવ્યની ઉત્પત્તિ થાય છે એક સમયથી નહી (૧) દ્વિતીય નિદ્વવ તિષ્યગુપ્ત હતા, એમની એવી માન્યતા હતી કે, જીવના એક અતિમ પ્રશ્ન જ જીવ
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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