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उत्तराभ्ययनको 'लूह' इत्यनेन तपश्चरणशीलत्व प्रवेदितम् ॥ ६ ॥ 'मुणी' इत्यनेन सावध कार्ये मौनत्यमिति वोधितम् । मलम्-न मे' निवारणं अत्यि, छवित्ताणं न विजए ।
अहं तु अंगिंग सेवामि, इंइ भिक्खन चितए ॥७॥ छाया-न मे निवारणम् अस्ति, छरित्राण न विद्यते ।
अह तु अग्नि सेवे, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् ॥ ७॥ टीका-'न मे' इत्यादि।
मे=मम, निवारण-शीतनिवारक स्थान नास्ति, तथा-उरित्राण-शरीराच्छादनक वस्त्रकम्मलादिक न विद्यते। तु=पुनः, अग्नि सेवे अग्नि प्रज्वाल्य तत्तापमाश्रयेय, इति=एव, भिक्षुन चिन्तयेत् मनसापि न प्रार्थयेत् । चिन्तामतिषेधेन तत्सेवन तु दूरत एव निराकृतम् ।। ठहरना चाहिये। "विरय" इससे मुनिको यतनावान होना चाहिये यह सूचित किया गया है। "लूह " पद से तपश्चरण शीलता एव "मुणी" इस पद से सावद्यकार्य मे मौन रखना यह सूचित किया गया है ॥६॥
'न मे निवारण' इत्यादि. अन्वयार्थ-(मे-मम) मेरे पास (निवारण-निवारणम् ) शीत को दूर करने वालास्थान (न अस्थि-नास्ति) नही हैं (वित्ताण न विज्जए-छवित्राण न विद्यते) शरीर को आच्छादान करने वाला वस्त्र एव कम्बल आदि भी नही है अत (अह तु अग्गि सेवामि-अतु अग्नि सेवे) मै अग्नि का 'सेवन करूँ (इइ-इति) इस प्रकार (भिक्खू-भिक्षु ) साधु (न चिंतए-न चिन्तयेत् )मन से भी विचार न करे, उसके सेवन की बात तो दूर रही। " विरय " सनाथी भुनिये यत्नापान मन न मे सूयित ४२वामा माव्यु छ “लूह" पहथी तपश्वर शीता मन " मुणी" 241 पहथी सावध કાર્યમા મોન રાખવુ એ સૂચિત કરવામા આવેલ છે
नमे निवारण इत्यादि
भ-क्याथ-मे-मम भारी पासे निवारण-निवारणमीथी भयावीश तेवु स्थानन अस्थि-नास्ति नथी, छवित्ताण नविज्जए छवित्राण न विद्यते शरी२ ७५२ माता भाट १७ तथा ४ वगैरे पर नथी माथी अहतु अगि सेवामि-अग्नि सेवे भनिनु सेवन ४३ इइ-इति मा ४२न। भनथी ५४ भिक्खू-भिक्षु मुनि न तिए-न चिन्तयेत् विचार न ४२ तेना सेवनानी पात तो २ २ड़ी