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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा ४६ आचार्यादीना प्रसन्नत्वे फलम् २५९ 'अनेन सफलीकृत जन्म, छिन्न च दु-छेद्य कर्मवन्धन निस्तीर्णच दुस्तरः ससारसागरः' इत्यादिरूपा, जायते = प्रादुर्भवति, अपि च-स कृत्याना = आचार्याणा शरणम् = आश्रयो भवति, यथा जगती पृथिवी भूताना = प्राणिना शरणम् = आधारो ऽस्ति तद्वत् ॥ ४५ ॥ " मूलम् - पुज्जी जस पंसीयति, सबुद्धा पुर्वसथुया । पसन्न लाभस्संति, विउँलं अंट्ठिय सुर्यम् ॥४६॥ छाया -- पूज्या यस्य प्रसीदन्ति, सबुद्धा पूर्वसंस्तुताः । प्रसन्ना लाभयिष्यन्ति, निपुलम् जार्थिक श्रुतम् ॥ ४६ ॥ टीका - 'पुज्जा' इत्यादि - सबुद्धाः सम्यग्ज्ञानवन्त., पूर्वसस्तुताः = पूर्वं सम्यक् प्रकारेण स्तुता, श्रुतदाजायते ) जो साधु अपने कर्तव्य को निभाता है उसका उसे यह फल मिलता है कि उसकी कीर्ति इस लोक मे फैल जाती है। लोग कहने लग जाते हैं कि इसने अपने जन्म को सफल बना लिया है। दुश्छेद्य कर्मबन्धन इसने छेद डाला है | दुस्तर ससार सागर इसने पार कर लिया है । ( जहा - पथा) जैसे- (जगई - जगती) पृथिवी (भूयाण सरण वह भूताना शरण भवति) प्राणियो के लिये आधारभूत होती है, इसी तरह वह शिष्य भी ( किच्चाण सरण हवइ - कृत्याना शरण भवति ) अपने आचार्य महाराज का आधार वन जाता हे ॥ ४५ ॥ 'पुज्जा' इत्यादि । अन्वयार्थ - ( सबुद्धा - सबुद्धा) पहिले - श्रुतदान के पहिले ही विनयलोके कोर्ति जायते ने साधु पोताना उतव्यने निलावे छे मेने तेनु योज મળે છે કે, તેમની કિતી આ લેાકમા ફેલાઇ જાય છે, લેકે કહેવા લાગે છે કે, આઘે પેાતાના જન્મને સફ્ળ ખનાવી લીધા છે. ડના ખધનને એણે તેડી नाभ्या छे, दुस्तर ससार सागर से पार २ सीधे छे जहा यथा भजगई - जगती पृथ्वी भूयाण सरण हवइ-भूतामा शरण भवति प्राणीखाने भाटे આધારભૂત હાય છે, એજ રીતે તે શિષ્ય પણ પાતાના આચાર્ય મહારાજના माश्रय मनी लय छे ॥ ४५ ॥ पुज्जा-- इत्यादि अन्वयार्थ - सबुद्धा सबुद्धा પહેલા શ્રુતદાનના પહેલા—વિનયગુણુથી
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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