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प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा १२, गुरोरिगितज्ञेन शिष्येण भाव्यम् ७५ वाले अष्टविध कमोंका इस आलोचना के प्रभाव से विनाश होता है। आत्मिक शुद्ध स्वरूप के दर्शन करानेवाली यह आलोचना है और तत्त्व ण्व अतत्त्व के विवेक को जाग्रत करती हुई अन्याराध सुख को प्रदान करनेवाली यही आलोचना है ॥ ११॥
. शिष्यको सभी काम गुरुमहाराजके अभिप्रायसे ही करना चाहिये, मो दिखलाते ह-'मा गलियस्सेव०' इत्यादि ।
अन्वयार्थ-(गलियस्सेव कस-गलिताच इव कशा) जिस प्रकार अविनीत घोडा वारवार कशा (चाक) के प्रहार की इच्छा करता है, उसी प्रकार (पुणो पुणो मा वयणमिच्छे-पुनः पुन. मा वचन इच्छेत् ) पुनः पुनः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप गुरुके आज्ञा की शिष्य को वाछा नही करनी चाहिये, अर्थात्-उपदिष्ट अर्थको ही बारनार कहलवाने के लिये गुरु महाराज को कष्ट नहीं देना चाहिये । किन्तु (आइन्ने कस व दछ-आकीर्ण. कशाम् इव दृष्ट्वा) जिस प्रकार आकीर्ण अर्थात् जातिमान सुशिक्षित विनीत घोडा चानुक को देखकर अपनी अविनीतता का परिहार कर देता है, उसी तरह विनीत शिष्य भी (पावग परिवजएपापक प्रतिवर्जयेत् ) गुरु के इगित आकार को जानकर पापमय अनुठान का परित्याग करे।
इस श्लोकका भावार्थ शत्रुमर्दन राजा के दृष्टान्त से कहते हैंवह इस प्रकार है
સ્વરૂપનું દર્શન કરાવનાર આ આલોચના છે અને તત્ત્વ તેમજ અતત્વના વિવેકને જાગ્રત કરીને અવ્યાબાધ સુખ આપનારી આ જ આલોચના છે ૧૧૫
ગિળે બધા કામ ગુરુમહારાજના અભિપ્રાયથી જ કરવા જોઈએ, તે मतावामा मा छ ‘मा गलियस्सेव०' ऽत्यादि
गलियरसेव कस-लिताश्व इन कशा प्रकारे घोडी पवार यामुना प्रहा नी रे छे से प्रकारे पुणो पुणो मा वयणमिच्छे-पुन पुन मा वचन
ન કરી ફરી પ્રવૃત્તિનિવૃત્તિરૂ૫ ગુરુની આજ્ઞાની શિષ્ય ઈચ્છા ન કરવી જોઈએ-અર્થાત્ ઉપદિષ્ટ અને વારવાર કહેવડાવવા માટે ગુરુમહારાજને ४४ नापने ये ५२तु आइन्ने कस व दडु-आकोण कशाम् इव दृष्ट्वारे प्रडारे આકીર્ણ અર્થાત્ જાતવાન કેળવાયેલ ઘોડે ચાબુકને જોઈ પિતાની અવિનીતताना त्यास उरे मे गत विनीत प्य ५५ पावग परिवज्रए-पापक प्रतिवर्जयेत् गुरुना जित-24151रने cell १५मय मनुननी परित्या रे
આ શ્લોકનો ભાવાર્થ શત્રુમર્દનના દુષ્ટાતથી સમજાવવામાં આવે છે, જે આ પ્રકારે છે