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________________ मूलम् २ गुणरय णुज्ज्वलकडयं, सीलसुगंधि तवमंडिउद्देसं । ३ ४ ५ सुयबारसग सिहरं, संघ महामंदरं वंदे ॥ १८ ॥ छाया गुणरत्नोज्ज्वलकटकं, शील सुगन्धि तपोमण्डिताद्देशम् । श्रुतद्वादशाङ्गशिखरं सङ्घमहामन्दरं वन्दे ॥ १८ ॥ अर्थ: -- स्थविरावली मैं गुणरूप रत्नमय स्वच्छ मध्य भागवाले तथा शील (सदाचार) रूप सुवास ( खुसबू ) से सुवासित, और तपस्या से शोभित, और उद्देश (अवयव) वाले द्वादशाङ्गशास्त्र वा शास्त्र के द्वादशाङ्गरूप शिखरवाले सङ्घरूपवडे सुमेरु पर्वतको वंदता हूं ॥ १८ ॥ मूलम् २ ३ ४ नगर रह चक्क पउमे, चंदे सूरे समुह मेरुम्मि | ६ १० ७ ९ ८ ११ जो उवमिज्जइ सययं तं संघ गुणायरं वंदे ॥ १९ ॥ , छाया नगररथचक्रपत्रे, चन्द्रे सूरे समुद्रे मेरौ । य उपमीयते सततं तं सङ्घ गुणाकरं वन्दे ॥ १९ ॥ अर्थः— - जो नगर, रथ, चक्र, कमल, चन्द्र, सूर्य, समुद्र और सुमेरु में तुळित किया जाता है अर्थात् नगरादियों की उपमा जिसमें दी जाती है उस गुणाकर (गुणकीखान ) संघको मैं सदा वन्दन करता हूं इसमें समुद्र और संघ इन दोनो शब्द में प्राकृत होनेके कारण विभक्ति लोप हुआ है ॥ १९ ॥
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
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