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स्थविरावली
जीवदया सुन्दरकन्दरोद् दृप्त मुनिवर मृगेन्द्राकीर्णस्य । हेतु शतधातु प्रगलद्रत्न दीप्तषधिगृहस्य ॥ १४ ॥ संवरवरज लमगलितोज्झर मविराजमान हा (घा) रस्य । श्रावकज नमचुरवन्नृत्यन्मयूर कुहरस्य ॥ १५ ॥ विनयनत प्रवर मुनिवर स्फुरद्विद्युज्ज्वलच्छिखरस्य । विविधगुणकल्पवृक्षक भरकुसुमाकुलवनस्य ॥ १६ ॥ ज्ञानवररत्नदीप्यमान कान्तवैडूर्यविमल चूलस्य । वन्देविनयप्रणतः, सङ्घमहामन्दिर गिरेः ॥ १७ ॥ ( कुलकम् )
अर्थः
मैं सम्यग्दर्शनरूप उत्तम वज्रमय दृढ ( स्थिर - चिरकालिक ) अत्यन्त अवगाढ (भूमि में गडा हुआ) पीठ (आधारशिला ) वाले तथा धर्मरूप उत्तम रत्नों से शोभित सुवर्णमय मेखला ( मध्यभाग ) वाले नियमरूप सुवर्णमय शिलातल पर उच्च उज्ज्वल ( विमल) और भास्वर ( चमकदार ) चित्तरूप अद्भुत कूट (शिखर - चोटी ) वाले, सन्तोषरूप नन्दनवनसम्बन्धी चित्ताकर्षक सौरभ्य से युक्त शील ( सदाचार ) रूप सुवास - ( खूसवु ) से सम्पन्न, जीवदयारूप सुन्दर ( अच्छी ) कन्दरा (गुफा) में इस ( कर्मरूप शत्रु के प्रति और कुमतानुयायियों के प्रति वादलब्धि से सात्त्विक अभिमानवाले ) मुनि शिरोमणिरूप सिंहोंसे व्याप्त (अधिष्ठित ) सैंकडों हेतुरूप धातु क्षायोपशमिकभाव से गिरते हुए शुभ विचाररूप रत्नों से प्रकाशित . आमपौषधि आदि औषधिवाली व्याख्यानशालारूप गुफा वाले पांच maa का निरोधरूप संवररूप स्वच्छलके गिरे हुए प्रशमादि विचारधारारूप उन्नत झरनारूप धारावाले श्रावकजनरूप बहुत बोलते नाचते मोरवाली कन्दरावाले, विनय से नम्रीभूत उत्तम मुनिवररूप चमकती हुई विजलियों से शोभा
मान शिखरवाले, अनेक गुणरूप कल्पवृक्षके फलों के भर (समूह) और पुष्पोंसे व्याप्त वनवाले, उत्तम ज्ञानरूप रत्नों से शोभायमान सुन्दर वैडूर्य मणिमय चोटीवाले सङ्घरूप महान सुमेरु पर्वतको ( मैं ) विनय से प्रणत ( अतिनम्र ) हो वन्दन करता हूं ॥ १२-१७ ॥