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ज्ञानचन्द्रिकाटीका - अवायमेदाः ।
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मूलम् से किं तं अवाए ? | अवाए छव्विहे पण्णत्ते, तं
जहा- सोइंदिय - अवाए | चक्खिदिय - अवाए । घाणिदियअवाए । जिभिदिय - अवाए । फासिंदिय - अवाए । नोइंदियअवाए । । तस्स णं इमे एगट्टिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिजा भवन्ति, तं जहा-आउट्टणया१, पच्चाउट्टणयार, अवाए३, बुद्धी४, विष्णाणे५ । सेतं अवाए ॥ सू० ३२ ॥
दृष्टान्त द्वारा इस विषय को इस प्रकार समझना चाहिये - जब ऐसा ज्ञान होता है कि 'यह कुछ है' तब स्वभावतः यह जिज्ञासा होती है कि क्या यह बक पंक्ति है अथवा पताका है १ । पताका होनी चाहिये इस विचार धारा का नाम ही आभोगनता है १ । इसके बाद जो ऐसा चित्त में विचार आता है कि वह हवा के आने पर ऊपर की ओर उड़ती है, नहीं आने पर बैठ जाती है, अतः ऊपर फडकना नीचे आना आदि जो इसके अन्वरुप धर्म हैं वे इसमें पाये जाते है, बक पंक्ति में यह बाते नहीं पाई जाती हैं, अतः यह पताका ही होनि चाहिये, क्यों कि इसमें पताका के धर्मों का ही संबंध बैठता है बकपंक्ति के धर्मो का नहीं। इस तरह मार्गणता, गवेषणता, चिन्ता पवं विमर्श ये ईहा के प्रकार सध जाते हैं | सू० ३१ ॥
જ્યારે એવુંન ન દૃષ્ટાન્તદ્વારા આ વિષયને આરીતે સમજાવીશકાય. થાયછે કે “ આ કંઈકછે? ત્યારે સ્વાભાવિક રીતે જ એ જિજ્ઞાસાથાયછે "शुं या भगवानीहारछे अथवा चताओ छे ?" “पता आहे। पीलेऽभे ” આ વિચારધારાનુંનામજ આભાગનતાછે. ત્યારબાદ મનમાંએવા જે વિચારઆવેછે કે તે પવનઆવતા ઉપરનીતરફ છે, પવન ન આવતા નીચીજ રહેછે, તેથી ઉપર ફરકવું નીચે આવવું આદિ જે તેના અન્વયરૂપ ધર્મ છે તે એમાં મળીઆવેછે, ખગલાંનીહારમાં આવાત ખનતીનથી, તેથી તે પતાકા જહાવી જોઈએ, કારણ કે તેમાં પતાકાના ધર્મને સમંધ જ ધબેસતે થાય છે, अगसानी हारना नहीं. या अहारे भार्गगुता, गवेषणुता, चिन्ता, अने विमर्श ये डाना अरोनो निशुयथलियछे ।। सू. ३१ ।।
न० ४९