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________________ १३९ भानचन्द्रिकाटीका-शानभेदाः। क्षेत्रबहितिर्वनः स्वयंभूरमणसमुद्रोत्पन्नस्य तिरश्चोऽवधेस्तदेकदेशो विषयः । क्षेत्रपरिमाणं तु योजनापेक्षया सर्वत्रापि जम्बूद्वीपादारभ्य असंख्येयद्वीपसमुद्रपरिमाणमवसेयम् । अपि च-स्वयंभूरमणभिन्ना ये मनुष्यक्षेत्रबहिर्वतिनो द्वीपसमुद्रास्तत्र समुत्पन्नस्य तिरथोऽप्यवधिस्तदेकदेशविषयको भवति ॥ गा०६ ॥ ___तदेवं क्षेत्रवृद्धौ कालद्धिरनियता, कालवृद्धौ तु क्षेत्रद्धिर्भवत्येवेति कथितम् , तदानीं द्रव्यक्षेत्रकालभावानां मध्ये यस्य वृद्धी यस्य वृद्धिर्भवति, यस्य च न भवति, तमर्थ बोधयितुमाइमूलम् काले चउण्ह वुड्ढी, कालो भइयव्वु खेत्तवुड्ढीए ॥ वुड्ढीए दव्वपज्जव, भइयव्वा खेत्तकाला उ ॥७॥ छाया-काले चतुर्णा वृद्धिः, कालो भजनीयः क्षेत्रवृद्धथै । वृद्धथै द्रव्यपर्याययोः भाज्यौं क्षेत्रकालौ तु ॥ ७ ॥ करनेवाला होगा मनुष्यक्षेत्र से बहिर्वर्ती तिर्यश्च के कि जो स्वयंभूरमण समुद्र में उत्पन्न हुआ है उसके अवधिज्ञान का विषय स्वयंभूरण समुद्र का एक देश होगा। क्षेत्र का परिमाण तो योजन की अपेक्षा सर्वत्र जंबूद्वीप से लेकर असंख्यातद्वीपसमुद्रपर्यंत जानना चाहिये । और स्वयंभूरमण समुद्र से भिन्न जितने भी मनुष्यक्षेत्रबहिर्वर्ती द्वीप और समुद्र हैं उनमें उत्पन्न हुए तियञ्च का अवधिज्ञान उनके एक देश को विषय करनेवाला होता है । गा०६॥ . ___ इस तरह क्षेत्र की वृद्धि में काल की वृद्धि अनियमित है, परन्तु काल की वृद्धि होनेसे क्षेत्रकी वृद्धि नियमित है-वह होती ही है, यह बात यहां प्रकट की गई है । जब यह बात है तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन के बीच में जिसकी वृद्धि होने पर जिसकी वृद्धि होती है, और जिसकी તથા મનુષ્ય ક્ષેત્રની બહારના તીર્થંચ કે જે સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ છે, તેમના અવધિજ્ઞાનને વિષય સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રને એક દેશ હશે. ક્ષેત્રનું પરિમાણ તે જનની અપેક્ષાએ સર્વત્ર જંબુદ્વીપથી લઈને અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્ર સુધી જાણવું જોઈએ. અને સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રથી ભિન્ન જેટલાં મનુષ્યક્ષેત્ર બહારનાં દ્વીપ અને સમુદ્ર છે તેઓમાં ઉત્પન્ન થયેલ તિર્યંચનું અવધિજ્ઞાન तमना - शिन विषय ४२॥२ डाय छे. ॥ गा.॥ આ રીતે ક્ષેત્રની વૃદ્ધિમાં કાળની વૃદ્ધિ અનિયમિત છે પણ કાળની વૃદ્ધિ થતા ક્ષેત્રની વૃદ્ધિ નિયમિંત છે–તે હોય છે જ. આ વાત અહીં પ્રગટ કરેલ છે. જો આ વાત છે તે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવ, તેમની વચ્ચે જેની વૃદ્ધિ
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
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