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________________ प्रकादिका टीका-सप्तमवमस्कारः झू. २० संवत्सरादीनां आदित्यमिक गम् ३१७ युगे प्रवर्तमाने एव सर्वे कालविशेषरूपाः रुपमाषणादयः प्रतिपद्यन्ते युगे समाप्ते सति ते कालविशेषरूपाः सुपपादयः समाप्ता भान्ति, अपि च हालज्योतिश्चार मूलस्य सूर्य दक्षिणायनस्य चन्द्रोत्तरायणस्य च युगपत् प्रवृत्ति युगस्यादात सोऽपि चन्द्रायणस्याभिजिद् योगा प्रथमसमये एव सूर्याषणस्य तु पुष्पस्य अयोविंशलों पष्टि भागेपु व्यतीतेषु तेन सिद्धं युगस्यादित्वमिति । 'दक्खिगाइया अवगा' दक्षिगादिके अपने तत्र दक्षिणायनं संवत्सरस्य प्रथमे षण्मासा स्वदादिर्ययो रते दक्षिणादिके अपने भवतः दक्षिणागनरमादित्वं च युगभारम्भे प्रथमत एवं प्रवृत्तत्वात्, एनच सूर्यस्यायनापेक्षया ज्ञातव्यम्, चन्द्रस्यायनापेक्षयातु उत्तरायणस्यैवादिवं वक्तव्यम्, यतो बुगारम्भे चन्द्रस्योत्तरायणप्रवृत्तत्वादिति । 'पाउसाइया उऊ' प्रायडादिका ऋतवः, तत्र प्राइ ऋतुः अषाढ श्रावण द्वयमातरूपात्मक आदिः प्रथमो उत्तर-युगके प्रवर्तमान होने पर ही काल विशेष रूप जो सुषम सुषमादि हैं उनकी प्रवृत्ति होती हैं और युग की समाप्ति होने पर इनकी समाति हो जाती है अपिच सकलज्योनिश्वारका मूल सूर्य दक्षिणायन की और चन्द्रोत्तरायन की ओर युगपत्प्रवृत्ति युग की आदि में ही होती है चन्द्रायण का अभिजित् योग प्रथम समय में ही होता है परन्तु सूर्यायण का पुष्य ६० भागों के व्यतीत होने पर २३ भागों में होता है इससे युग में आदितासिद्ध हो जाती है 'दक्षिणाया अथणा' अयनों में सब से प्रथम अयन दक्षिणायन होता है अयन दोनों ६-६ मास के होते हैं जब युग का प्रारम्भ होता है तब दक्षिणा यन ही होता है यह जो कथन है वह सूर्यायन को अपेक्षा से है ऐसा समझना चाहिये क्योंकि चन्द्रायण की अपेक्षा उत्तरायण में ही आदिता कही गई है कारण कि राम के आरम्भ में चन्द्र का अयन उत्तर की ओर ही होता है 'पाऊसाइया ऊऊ' प्रावृट् आदि ६ ऋतुएं कही गई हैं इन से आपाढ सावन दो मास ઉત્તર-યુગ પ્રવર્તમાન થવાથી જ કલવિશેષ રૂપ જે સુપમ સુષમાદિ છે તેમની પ્રવૃત્તિ થાય છે અને યુગની સમાપિત થવાથી એમની સમાપ્તિ થઈ જાય છે કે સકળ પતિશ્ચારિકનું મૂલ સૂર્ય દક્ષિણાયનની તરફ અને ચન્દ્રોત્તરાયણની તરફ યુગપત્મવૃત્તિ યુગની આદિમાં જ થાય છે. ચન્દ્રાયણને અભિજિતુ વેગ પ્રથમ સમયમાં જ થાય છે પરંતુ સૂર્યાયણને પુષ્યના ૬ ભાગના વ્યતીત થવાથી ૨૩ ભાગોમાં થાય છે. આથી युराना माहित सिद्ध 12 छ 'दक्खिणाइया अयणा' मयनामा सथी प्रथम अयन દક્ષિણાયન હોય છે. અયન બને ૬-૬ માસના હોય છે જ્યારે યુગનો પ્રારમ્ભ થાય છે ત્યારે દક્ષિણાયન જ થાય છે આ જે કથન છે તે સૂર્યાયનની અપેક્ષાથી છે એમ સમજવું જોઈએ કારણ કે ચન્દ્રાયણની અપેક્ષા ઉત્તરાયણમાં જ આદિતા કહેવામાં આવી છે કારણ है युगना मारसभा यन्द्र मयन उत्तर न ४ थाय छे. 'पाउसाइया उउ पाट આદિ છે. ઋતુઓ કહેવામાં આવી છે એમાં અષાઢ શ્રાવણ બે માસ રૂ૫ પ્રવૃર છત હોય
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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