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________________ जम्यूछीपप्राति नो गविरविका: 'णो गइसमावण्णगा' नो गतिसमापनकाः 'पविहगसंठाणसंठिएहि पक्वे. प्टकासंस्थानसंस्थितैः 'जोयणसवसाहस्सिएहि' योजनशतसाहसिकः-लक्षयोजनप्रमाणे 'तावखित्तेति' तापक्षेत्रः, तान् प्रदेशान् अब मासयन्तीति क्रियासम्बन्धः, अत्र पवेष्टकासंस्थानं यया पक्वेष्टका आयामतो लम्पायमाना विष्कम्भतः स्तोका चतुष्कोणा च भवति, तेनैव प्रकारेण तेषां मनुष्य क्षेत्रवतिनां चन्द्रसूर्याणां तापक्षेत्राणि आयामतोऽनेकयोजनयक्ष प्रमाणानि, विष्कम्भतो योजनशतसहस्र पमाणानि भवन्ति, अयं माव:-मानुपोत्तरपर्वतात् योन नक्षस्या तिक्रमे सविप्रथमा चन्द्रसूर्यपति स्वदना योजनधाविक्रमे द्वितीयापइक्तिः, विमानोपपन्नक है चारोपपन्नक भी ये नहीं है किन्तु चारस्थितिक है गतिवर्जित है, अत एव ये गतिरतिक भी नहीं हैं और न गतिसमापन्नक भी है। तात्पर्य यही है कि अढाई द्वीप के ही ज्योतिषी देव गतिरतिक गतिसमापन्नक और चारोपपन्नक कहे गये हैं-ढाई द्वीप से पाहर के ज्योतिषी देव गतिवजित कहे गये हैं। 'पहिगसंठाणसंठिएहि जोयणसयसाहस्सिएहिं तावक्खित्तेहिं सयसाहस्सियाहि वे उब्वियाहि पाहिराहि परिसाहिं मन्याहयणट्ठ जाव मुंजमाणा सुहलेस्सा अंदलेस्सा मंदानवलेस्सा चित्तंतरालेत्सा' ये ज्योतिषी देव पश्च ईट के जैसे संस्थान वाले ऐसे एक लाग्न योजन प्रमित ताप क्षेत्र को अवभासित करते है पकी हुई ईट का संस्थान आयाम की अपेक्षा लम्या होता है और विष्कम्भ की अपेक्षा स्तोक-कम-होता है एवं चार कोनों घाला होता हैं इसी प्रकार से अनुष्य क्षेत्रवती चन्द्र सूर्यो के ताप क्षेत्र आयाम की अपेक्षा अनेक योजन लक्ष प्रमाण लम्बे होते हैं और विष्कम्भ की अपेक्षा वे एक लाख योजन के प्रमाण वाले होते हैं तात्पर्य यह है कि-मानुपोत्तर पर्यत से आधे लाख योजन ૫૫નક પણ નથી પરંતુ ચારિતિક છે, ગતિવત છે એથી એ ગતિરતિક પણ નથી અને ગતિસમાપનક પણ નથી. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અઢઇ દ્વીપના જ તિવી દેવ ગતિરતિક, ગતિસમાપનક અને ચારે૫૫નક કહેવામાં આવેલા છે. અઢાઈ बीन महान ज्योतिषी है। गतिवनित उपाभा मारा 2. 'पकिदुगसंठाणसं ठिएहिं जोयणसयसाहस्सिएहिं तावक्खित्तेहिं सयसाहस्तियाहिं वेउब्वियाहि वाहिराहिं परिसाहिं महया हयणटु जाव मुंजमाणा सुहलेत्सा मंदलेत्सा मंदातवलेस्सा चित्तंतरलेस्सा' ल्याતિષ્ક દેવ પફવ ઈટ જેવા સંસ્થાનવાળા, એવા એક લાખ જન પ્રમિત તાપક્ષે તે અવભાત્રિત કરે છે, પફવ ઈટનું સંસ્થાન આયામની અપેક્ષાએ સ્નેક-કમ-હેય છે, તેમજ ચતુષ્કોણ યુક્ત હોય છે. આ પ્રમાણે મનુષ્ય ક્ષેત્રવતી ચન્દ્ર સૂર્યના તાપેક્ષેત્ર આચાર્મની અપેક્ષાએ અનેક પેજને લક્ષ પ્રમાણ દીર્ઘ હોય છે–અને વિધ્વંભની અપેક્ષાએ તેઓ એક લાખ જન જેટલા પ્રમાણુવાળા હોય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે માનુત્તર પર્વતથી અર્ધ લાખ જન પછી પ્રથમ ચન્દ્ર, સૂર્ય, પંક્તિ છે. ત્યાર પછી એક એજન
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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