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________________ प्रकाशिका टीका - सप्तमवक्षस्कारः सू. ८ दूरासन्नादिनिरूपणम् १०९ " मुहूर्ते दूरे च मूळे च दृश्येते तत्रोद्गमनमुदयः तथाचोदयोपलक्षिते मुहूर्त्ते समये दूरे च दृष्टृस्थानापेक्षया दूरे - व्यवहिते मूले च द्रष्टुः प्रतीत्यपेक्षया समीपे (आसन्ने ) दृश्येते - दृष्टिविपय क्रियेते, दर्शका डि जनाः स्वरूपतः सप्तचत्वारिंशद् योजनसहस्रैः समधिकैः व्यवहितम् उद्गमनास्तमयनसमये सूर्य पश्यन्ति तथापि आसन्नं समीपतरं मन्यन्ते, दूरस्थितमपि अयं दूरे वर्तते इति न प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः । 'मज्यंति य मुहुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति' मध्यान्तिकमुहूर्त्ते च मूळे च दूरे च दृश्येते, तत्र मध्यो मध्यमः अन्तो विभागो गमनस्य दिवसस्य स मध्यान्तः स मध्यान्तो यस्य मुहूर्त्तस्य विद्यते स मध्यान्तिकथासौ तिमध्यान्तिको मुहूर्त्तः मध्यान्तिकमुहूर्तः मध्याहमुहूर्त्त इत्यर्थः मध्यान्तिकमुहूर्त्ते मूळे द्रष्टृस्थानापेक्षया आसन्नदेशे दूरे च विप्रकृष्टे देशे द्रष्टृ प्रतीत्यपेक्षया सूर्यो दृश्येते द्रष्टाहि 9 विचार को जानने के अभिप्राय से प्रभु से ऐसा पूछते हैं - (जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे सूरिया) हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके इसद्वीप में वर्तमान (सूरिया) दो सूर्य (उग्गमणमुहुत्तंसि ) उदय के समय - उदय काल से उपलक्षित मुहूर्त रूप समय- में (दूरेय मूल य दीसंति) दृष्टा के स्थान की अपेक्षा दूर - व्यवहित रहने पर भी मूल दृष्टा की प्रतीति की अपेक्षा पास मे दिखलाई देते हैं । दर्शक जन स्वरूप से कुछ अधिक ४७ हजार योजन से व्यवहित भी सूर्य के उद्गमन और अस्तमयन के समय में उसे देखते हैं तथापि वे उसे आसन्न समीपतर - मानते हैं दूर रहने पर भी 'यह दूर है' ऐसा नहीं मानते हैं । (मज्झति य मुहुर्तसि मूले य दूरे च दीसंति) मध्य काल में दृष्टा जनों द्वारा अपने स्थान की अपेक्षा आसन्न देश में और दृष्टा जन की प्रतीति की अपेक्षा दूर देश में ये रहे हुए हैं इस प्रकार से दो सूर्य देखे जाते हैं दृष्टा जन मध्याह्न समय में उदय और अस्तमयन प्रतीति की अपेक्षा आसन्न -पास सूर्य को देखता है क्योंकि उस સૂર્યાધિકારના સબંધને લઇને આ સદÖમાં દ્રાસન્નાદિ ઘનફળ વિચારને જાણવાના अभिप्रायथी असुने या प्रमाणे पूछे छे - 'जंबुद्दीवेणं भंते । दीवे सूरिया' डे महंत ! जूद्वीपनाभः या द्वीयभां वर्तमान 'सूरिया' में सूर्यो 'उग्गमणमुहुत्तंसि' उदय वणतेउदयठाणथी उपलक्षित मुहूर्त ३५ सभयभां 'दूरे य मूले य दीस ति' दृष्टाना स्थाननी અપેક્ષાએ દૂર-વ્યવહિત રહેવા છતાંએ મૂળ દૃષ્ટાની પ્રજ્ઞીતિની અપેક્ષાએ સમીપમાં જોવા મળે છે. દશકા સ્વરૂપ કરતાં કંઇક વધારે ૪૭ હજાર ચેાજન કરતાં વ્યવહિત પણ સૂર્યંના ઉદ્બેગમન અને અસ્તમયનના સમયમાં તેને જુએ છે. તથાપિ તે તેને આસન્ન-સમીપતર માને છે, દૂર રહેવાં છતાં એ—આ ક્રૂર છે' એવું માનતા નથી. અહી' સત્ર કાકુ વડે પ્રશ્નો કરવામાં આવેલા છે. એવુ માનવું જોઈએ. એ પ્રશ્નોના त्राणभां अलु गौतमने उडेछे- 'हंता गोयमा ! अडी' 'हंत' शब्द स्वीशक्षित भादे
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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