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योधिनी टीका सू. ९१ सूर्याभदेवस्य अलङ्कारधारणादिवर्णनम् पौरस्त्येन द्वारेण प्रतिनिष्कामनि, प्रतिनिष्कस्य यत्रैव व्यवसायसभा तन्त्र उपागच्छति, व्यवसायसमा अनुप्रदक्षिणीकुर्वन् अनुपदक्षिणीकुर्वन् पौरस्त्येन द्वारेण अनुप्रविशति, यव सिंहासन यावत् सन्निषण्णः । ततः खलु तस्य सूर्याभस्य देवस्य सामानिकपरिषदुपपन्नका देवा पुस्तकरत्नम् उपनयन्ति । ततः खलु स सूर्याभो देवः पुस्तकरत्न गृहाति, गृहीत्वा पुस्तकरन मुञ्चति, मुक्तवा पुस्तकरत्न विघटथति, विघटय्य. पुस्तकरत्न बाचयनि, वाचयित्वा हा, सिंहासन से ऊठा (अब्भुहिता-अलंकारियसभाओ पुरथिमिल्लेण दारेण) ऊठकर वह अलकारिकसभा से उसके पूर्व दिग्वी दरवाजे से होकर (पडिनिक्खमइ) बाहर निकला (पडिनिवमित्ता-जेणेव ववसाय. सभा तेणेव उवागच्छइ) बाहर निकलकर फिर क जहां व्यरमायसभा थी वहां पर आया (ववसायसमें अणुपयाहिणो करेमाणे २ पुरथिमिल्लणे दारेण अणुपविसइ) वहां आकर उसने व्यवसायसभा (कार्यसभा की) बार२ प्रदक्षिणा की, फिर वह उसमें उसके पूर्व दिग्वर्ती द्वार से होकर प्रविष्ट हुआ (जेणेव सीहासणे व सन्निसण्णे) सो जहां पर सिंहासन रखा हुआ था उस पर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठ गया. (तएण तस्ल सरियाभस्म देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा पोस्थयर यणं उरणे ति) इस के बाद उस सूर्याभदेव के सामानिक परिषदों में उत्पन्न हुए देवोंने उस के समक्ष पुस्तकरत्न को उपस्थित किया. (तएण से भूरियाभे देवे पोत्थयारयण गिण्हड, गिहित्ता पोत्थ यरयण सुयइ, मुइत्ता पोत्थयरयण विहाडेह, विहाडित्ता थयो. मने त्या२५छी सिडासन ५२थी असो थयो. (अन्मुहिता अलंकारियसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं) ले थने ते २४ समाना ते पूर्ण दिशा त२५ना द्वारथी थान. (पडिनिक्वमइ) महा२ नीज्यो. (पडिनिक्खमित्ता जेणेव नवसाय. संभा तेणेव उवागच्छइ) महा२ नीजीने पछी ते या व्यवसाय सना हुती त्यो गयो. (ववसायसमें अणुपयाहिणो करेमाणे २ पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसह) त्यांने तेणे व्यवसाय समानी वा वा२ प्रक्षिा ४ मन, त्यार पछीतमा पूर्व त२३ना द्वारथी प्रविष्ट थयो. (जेणेव सीहासणे जाव सन्निसण्णे) भने यो सिंहासन तु.त्यां पड़ायान पूर्व दिशा त२५ भुप शन मेसी गयो. (तएणं तस्स सरियाभस्स देवस्स सामाणिय परिसोवरन्नग देवा पोत्थयरयणं उवणेति) त्या२पछी ते सूर्यामविना सामानि परिपामा येता वाय तनी सामे पुस्त४ २उपस्थित यु. (त एणं सूरिया देवे पोत्थरयणं गिण्हह, गिण्हित्ता पोत्थयररणं सुयट मुइत्ता पोत्ययस्यणं विहाडेइ विहाडित्ता