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________________ ५६४ ... राजप्रश्नीयसूत्रे छाया-ततः खलु मूर्याभस्य देवस्य सामानिकपरिषदुपपन्नका देवाः सूर्याभस्य देवस्य इममेत पम् आध्यात्मिकं यावत् समुत्पन्न समभिज्ञाय य व सूर्याभो देवस्तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य सूर्याभं देवं करतलपरिगृहीतं. शिर आवत्त मस्त के अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयन्ति,. वर्धयित्वा एवमवादिपुः-एवं खलु देवानुप्रियाणां मूर्याभे विमाने सिद्धायतने जिनप्रति मानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणाम् अष्टशतं संनिक्षिप्त तिष्ठति, सभायां खलु .. 'तएण तस्स सरियाभस्स देवस्स' इत्यादि। सत्रार्थ--(तएण तस्स परियाभस्स देवल्स सामाणियपरिसोववन्नामा देवा) इसके बाद उस मूर्याभदेव के सामानिक परिपद् उपपन्नक देव (सरियाभस्त देवस्स इमेयारूवमज्झथियं जाव समुप्पन्न समभिजाणित्ता) उस सूर्याभदेव के इस प्रकार के आध्यात्मिक यावत् उत्पन्न हुए संकल्प को अच्छी तरह से जानकर (जेणेव सूरियामे देवे तेणेव उवागच्छति) जहां सूर्याभदेव विराजते थे वहां पर जाते हैं (उवामच्छित्ता मरिया देव करयलपरिग्गहिय सिरसावत्तियं मत्थए अंजलिं कटू जएणं विजएणं कहाचिंति) वहां जाकर वे सूर्याभदेव को नमस्कार करने के निमित्त दोनों हाथ जोडकर उसकी अंजलि बनाते हैं और फिर उसे मस्तक पर रख कर जयविजय शब्दों का उच्चारण करते हुए उसे वधाई देते हैं। (बद्धाः वित्ता एवं वयासी) वधाई देकर फिर वे उससे इस प्रकार कहते हैं (एवं खलु देवाणुप्पियाण मूरियाभे विमाणे सिद्धाययण सि जिणपडिमाण जिणुस्से हप्पमाणमित्ताण अट्ठसय सनिखित्तं चिट्ठइ)आप देवानुप्रिय के सूर्या.. 'त एण' तस्स सरियाभस्स देवस्स' इत्यादि । सूत्राथ-(त एण तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा) त्या२पछी ते सूर्यालहेवना सामानि परिषद उपपन्न । (सरियाभस्स देवस्स इमेयारूबमज्झस्थिय जाव समुप्पणं समभिजाणित्ता) ते सूर्यासविना ते प्रमाण आध्यात्मि यावत् लवेदा सपने सारी शतान (जेणेव सरियामे देवे तेणेव उवागच्छति): यो सूर्यामदेव तो त्यां गया. (उवागच्छित्ता मूरियाभ देव करयलपरिग्गहिय सिरसावत्तिय मत्थए अंजलि. क जएण विजएणवद्धाविति) त्यां ने तमा सूर्याभवन नभ२४२ ४२॥ માટે બંને હાથ જોડીને અંજલિ બનાવે છે અને પછી તેને મસ્તકે મૂકીને જયેविय Ava! 4 तेमाश्रीन धामणी यांचे छ. (बद्धावित्ता एवं क्यासी) वधाभणी माधान तगा तेभने विनती १२त ४९ (एवं देवाणुप्पियाण मूरियामे विमाणे सिद्धाययण सि जिणपडिमाण जिणुस्सेहप्पमाणमित्ताण' अट्ठसयं.
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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