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राजप्रश्रीयसु
सा खलु पद्मवर वेदिका एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ता । तत्खलु वनपण्डं देशीने द्वे योजने चक्रवालविष्कम्भेण, उपकारिकालयनसमं परिक्षेपेण, चनखण्डचर्णको भणितव्यो यावद् विहरन्ति ।
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तस्य खलु उपकारिकालयनस्य चतुर्दिशि चत्वारि त्रिसोपानमतिरूपकाणिप्रज्ञप्तानि वर्णकः, तोरणानि अष्टाष्टमङ्गलकानि ध्वजाः छत्रातिच्छत्राणि । किन्तु वह पहिले थी, अब भी है और आगे भी रहेगी. इस कारण वह त्र है शाश्वत है, अक्षत है, अव्यय है, और नित्य है ( साणं परमवरवया एगेणं वणसंडेण सचओ समंता संपरिक्खित्ता) वह पद्मवरवेदिका एक arers से चारों दिशाओं को ओर से चारों विदिशाओं की ओर से परिक्षिप्त है । ( से ण' चणसंडे देणाई दो जोयणाई च चकवालविक्ख भेण उवयारियाले समे परिक्खेवेण aणसंड व्रणओ भाणियचो) यह वनपंड चक्रवाल विष्कंभ की अपेक्षा से कुछ कम दो योजन का है, तथा उपकारिकालयन के समान इसका परिक्षेप है. यहां चनपण्ड का वर्णन करना चाहिये, और वह वर्णन ( जाव विहरति ) इस पाठ तक ग्रहण करना चाहिये. (तस्स उवयारियालेणस्सं चउदिसिं चत्तारि तिसवाणपं डित्रगा पण्णत्ता-वण्णओ तोरणा अमंगलगा, झया छता इच्छत्ता) उस उपकारिकालयन की चारों दिशाओं में चार श्रेष्ठ सोपान - पंक्तित्रय है. वर्णन इनके आगे तोरण हैं. वर्णन. अष्ट अष्ट मंगलक हैं, ध्वजाएं हैं. छत्रातिछत्र हैं । [तस्स णं उत्रयारियालयणस्स उचरिं बहुसमरमणिज्जे भूभिभागे पण्णत्ते जाव मणीण फासो) उस उपकारिकालयन के હમણા પણુ છે અને ભવિષ્યમાં પણ રહેશે. એથી તે ધ્રુવ છે, શાશ્ર્વત છે, અક્ષય छे, मव्यय छे, अवस्थित छ, भने नित्य छे. (सा णं पउमचरवेइया शुगेण वणसंडेण सव्वओ समता संपरिक्खित्ता ) ते पट्टभवरवेहि मे वनडे थी यारे दिशामा तरी तेभन यारे विहिशामो तरइथी परिक्षिप्त छे (सेणं वणस देसुणाई दो जोयणाई चकवाल विक्ख भेणं, उयारिले समे परिक्खेवेण वणडवण्णओ भाणियन्चो ) ते वनखंडे यटुवास विष्णुंलनी અપેક્ષાથી સહેજ કમ એ ચેાજનના છે તેમજ ઉપકારિકાલયનની જેમ આને परिक्षेप छे, अडीं' वनमंउनु वर्णन ४२ हो भने ते वर्शन (जाव विहरति ) मा भाई सुधी थहुए! ४ लेभे (तस्स णं' उवयारियालेणस्स चउदिसिंच तारि तिसोवापविना पण्णत्ता वष्णओ तोरणा अहम गलगा, झया छत्ताइच्छत्ता) ते उपरिक्षदायननी यारे दिशायामां ચાર શ્રેષ્ઠ સેાપાન