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राजप्रश्नोयसूत्रे छाया-सूर्याभस्य खलु देवबिमानस्य अन्तर्व[समरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वनषण्डविहोनो यावद् बद्दवो वैमानिका देवाश्च देव्यश्च आसते यावद् विहरन्ति । तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशे अत्र खलु महदेकम् उपकारिकालयनं प्रजप्तम् एकं योजनशतसहस्रम् आयामविष्कम्भेण त्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडशसहस्राणि दे च सप्तविंशति
'मरियाभस्स णं देवविमाणस्स' इत्यादि।
मुन्नार्थ-(मरियाभम्स णं देवविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभामे पाण) सूर्यासनानक देव विमान के मध्य में बहुसमरमणीय -अत्यन्त सम होने से अत्यन्त रमणीय ऐसा भूमिभाग कहा गया है (तं जहा-वणसंडविहूणे जाव बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य आसयंति, जाब विहरति ) वनखडरहित यावत् वैमा निक देव और देवियां कहां रहते हैं-तात्पर्य कहने का यह है कि आलिङ्गपुकवरेइवा' यहां से लेकर 'जाब विहरति' तक का पाठ जो कि ६५ वे सूत्र में बनषण्ड के वर्णन में कहा गया हैं छह पाठ यहां पर नहीं ग्रहण किया है-वाकी का और सब पाठ यहां वर्णन में ग्रहण किया गया है इसका क्या अर्थ है यह सब वहीं पर दिखा दिया गया है. अतः वहीं से इसे जानना चाहिये. (तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्त भूमिभागस्स बहुमज्झदेसे एत्थ णं महेगे उवगारियालयणे पण्णत्ते-एगं जोयणसयसहस्स आयामवित्र भेण तिणिजोयणमयणसहस्साई सोलससहस्साई दोणि य
सूत्रार्थ:-(मृरियाभस्स णं देवविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमि. भागे पण्णते) सूर्यासनाम विभानना मध्यमा पाइसभरभए।य-मत्यात समावाथी २मणीय मेवो भूमिमा वाम मावे छ. (तं जहा-वणसंडविणे जाव वहवे वेमागिया देवा य देवीओ य आसयंति, जाव विहरंति) वनहित यावत वैमानि देव मन हेवीमा ४यां २९ छ. तात्पय मा प्रभारी छ, 'प्रालिङ्ग पुक्ख रेइवा' माथी भासन 'जाव विहरंति' सुधीना या २६८ मां सत्रमा વનખંડના વર્ણનમાં કહેવામાં આવ્યું છે–તે પાઠનું ગ્રહણ અહીં કરવામાં આવ્યું નથી. બાકીને બધો પાઠ આ વર્ણનમાં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. આને અર્થ શો છે તે વિશેષણ ત્યાં જ સ્પષ્ટતા કરવામાં આવી છે એથી ત્યાંથી જ જાણી લેવું જોઈએ. (तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स वहमज्झदेसे एत्थणं महेगे उचगा. रियालयणे पण्ण-एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्ख भेणं तिणि जोयणसयसहस्साई सोलससहस्साई दोणि य सत्तावीसं जोयणसए तिणि ५ कोसे