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________________ राजप्रश्रीयसूत्रे -- छाया- - तेपां खलु वनपण्डानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं प्राप्ता. दावतंसकाः प्रज्ञप्ताः । ते खलु मासादावतंसकाः पञ्च योजनशनानि सुच्चत्वेन, अर्द्ध तृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण अभ्युद्गनोच्छिताः प्रहसिता इव तथैव बहुसमरमणीय भूमिभाग उल्लोकः सिंहासनं सपरिवारम् । तत्र खलु चत्वारो देवा महर्द्धिकाः यावत् पल्पोपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा - अशोकः सप्तपर्णः चम्पकः चूतः ॥ भ्रू० ६८ ॥ ४५० सूत्रार्थ - - (तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्यसभाए पत्तेय पतेय पासा चवडे सगा पण्णत्ता ) उन बनवण्डों में से प्रत्येक घनखण्ड के विलकुल मध्यभाग में मासोदा सक कहे गये हैं । ( तेणं पोसायवढे सगा पंचजोयणसयाई उड्ड उशेण, अडाइज्जाई जोयणसयाई विक्खभेण ) ये प्रातादावतंसक ५०० सौ योजन ऊंचे हैं और . २५० योजन विस्तार वाले हैं । ( अग्गयमूसिया पहसिया इत्र तहेव बहुसमरममिभूभिभागो उल्लोओ सीहासणं सपरिवार) तथा ये बहुत ऊंचे हैं इसलिये अपनी उज्ज्वल प्रभा से मानों हंस रहे हैं, पहिले के वर्णन जैसा बोकी का वर्णन जानना चाहिये. अतः 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ता' इस पाठ से लेकर 'पडिख्वा' तक का पाठ इनके कथन के विषय में यहां कहना चाहिये. उल्लोक एवं सपरिवार सिंहासन इन सब में है ऐसा भी कथन यहां कहना चाहिये (तत्थ णं चचारि देवा महिडिया जान पलिवमट्टिया परिवसंति-तं जहा असोए सत्तपणे चंपए, चूए) इन प्रासादावतंसकों में महर्द्धिक यावत् पल्योपम . सूत्रार्थ - (तैसि ण वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेय पासागवडे' सगा पण्णत्ता ) ते वनणं डोभांथी हरे हरे वनडोना हम मध्यभागभां असाहावंसठी अहेवाय छ. ( लेण पासायवडे सगा पंचजोयणसयाई उड्ड उच्चते आढाइज्जाई जोयणसयाई विक्ख भेण) मे आसाहावतसडीय ०० पांयसेो योन्न भेटला अन्या छ भने २५० सो पयास योजन विस्तारवाणा छे. (अन्भु 5 " यमूसिया पहसिया इव तहेव बहुसमरमणिज्जभूमिभागो उल्लोओ सीहासण सपरिवार) तेभर मेयो महु? या छे. मेथी पोताथी उज्वणं प्रमाथी જાણે કે હસતા ન હેાય તેમ લાગે છે. શેષ વન એમનુ પહેલાના વર્ણન જેવુ જ સમજવુ' તૈઈએ. એથી त्रिविक्रमणिरयणभत्तिचित्ता' 'पडिवा' सुधीने पाठ या नथी संबंधित सही समन्वो लेहये. उसो આ પાઠથી માંડીને અને સપરિવાર સિંહાસન આ બધામાં છે. એવુ' કથન પણ અહીં સમજવુ જોઇએ. (तत्थ णं चत्तारि देवा महिडिया जान पलिओत्रमरिया परिवसति त जहा
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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