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________________ सुबोधिनी टोका. स. ५३ सूर्याभविमानवर्णनम् स खलु प्राकारो नानाविधपञ्चवर्ण: कपिशीर्षकैरुपशोभितः, तद्यथाकृष्णैश्च नीलेश्च लोहितैश्च हारिट्रैश्च शुक्लश्च । तानि खल्ल कपिशीपकाणि एक योजनमायामेन, अर्धयोजनं विष्कम्भेग, देशोनं योजनम्र्ध्वमुञ्चत्वेन सर्वरनिमयानि यावत् प्रतिरूपाणि ॥ ० ५३ ॥ से एगेणं पागारेणं' इत्यादि-- उँचा हैं. मूल में यह प्राकार विष्कंभ की अपेक्षा एक सौ योजन का है. अर्थात् इसका मूलभाग एक सौ योजन प्रमाण विस्तारवाला है तथा मध्य में यह पचास योजन विस्तारवाला है. अर्थात् ५० योजनप्रमाण वि. स्तार से युक्त इसका मध्य भाग है. और इसके ऊपर का भाग २५. योजन प्रमाण विस्तार से युक्त है (मूले वित्थिन्ने, मज्झे संखित्ते, उप्पि तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए, सब्बरयणामए' अच्छे जाव पडिरूवे ) इस तरह यह प्राकार मूलभाग में अधिकविस्तारवाला है, मध्यभाग में संक्षिप्त है. और ऊपर में अल्पतर विस्तार वाला है. अतएव यह गोपुच्छ के आकार जैले संस्थानवाला है। यह प्राकार सर्वात्मना रत्नमय है निमेल है यावत् प्रतिरूप है, (सेण पागारे जाणाविहपंचवण्णेहि कविसीसएहिं उपसोभिए ) यह पाकार अनेक प्रकार के पांचवर्णीवाले कपिशीपको--(कंगूरों) से अलंकृत है (तजहा) वे पांच वर्ण इस प्रकार से हैं (कण्हेहि य, नीलेहि य, लोहिएहि य, हालिदेहि य, सुकिल्लहि य) कृष्ण १, नील २, लोहित ३, हारिद्र ४ और शुक्ल ५ ( तेणं कपिसीसगा एग जोयण आयासेण, ઉપરના ભાગ ૩૦૦ એજન પ્રમાણ જટલો ઊંચે છે. આ પ્રકાર મૂલમાં વિધ્વંભકની અપેક્ષાએ એક ચેન જેટલો છે એટલે કે આનો મૂળભાગ એકસો જન પ્રમાણુ વિસ્તારવાળો છે. તેમજ મધ્યમાં આ ૫૦ પચાસ એજન વિસ્તાર ધરાવે છે. એટલે 3.५०: यौन प्रभा विस्तारवाणी माना: भध्यमान छ. अने तेन! अपरिमा २५ यौन प्रमाण विस्तार वाण छ...(मूले बित्थिन्ने, मज्झे सखिो , उप्पितणुए गोपुच्छस ठाणसं ठिए, सबरयणामए अच्छे जांच पडिरूवे) 20 પ્રમાણે તે પ્રાકાર મૂળભાગમાં આધેક વિસ્તારવાળે છે, સંધ્યભાગમાં સંક્ષિપ્ત છે અને ઉપરિભાગમાં અલ્પતર વિસ્તારવાળે છે. એથી તે ગેપુછના આકાર જેવા સંસ્થાને पाण छ मा प्रा२ सर्वात्मना २लभय छ. नि . छ. यावत् प्रति३५ छ. (से णं पागारे जाणाविहपंचवण्णेहिं करिलीसएहिं उनसोभिए) ..या आहार घe otdit पायाfat पिशी. (Hiगराय) थी त ..छ: ( जहा) ते. पायपणे मा प्रभाले छ. (कण्हेहिय, नीलेहि य, लोहिएहि य हालिदेहि य, सुकिल्लेहि य) १ १, नीम २, मोहित, रिद्र.४, . शु४८
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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