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सुवाधिनी टीका. न. ११ मर्यामेण नाटयविधिदर्शनम्
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तथा-मनोहरं. नृत्यं मनोहर वादिनम्, उत्पिन्न नभूतं-व्याकुलीभूतम्, सपाकहकहभूत-प्रमोदकलकलभूतमनिरन्तर नाट्यगीतबाइनेषु विविधप्रकारदर्शनतः समुच्छलत्पमोहसिन्युनरजान्दोलिनादिग्विादिङमाडलपति दर्शकजन मुखोच्चरितप्रशनावचनोच्चौरुच्चैः प्रसरणकोलाहलव्याकुलीभूनाम् अत पात्र दिव्य देवरमण-देशानां रमगं-क्रीडनम् अपि प्रनाम्-उपस्थितम् अभवत् ।
__ततः-देवरमगमत्यानन्तरं उछलते पूचों काः, देशकुमारास ताः देव. कुमार्यश्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पुरतः स्वस्तिक १-श्रीरता १ के भी अतिचमकार युक्त होने के कारण मन को वश में करलेने वाले थे (गीए मण हरे नई मणहरे) इस तरह गीत मनोहर था, नाटय मनोहर था (मणदरे बाइए) वादन मनोहर था. (उरोधमलभूत, महकाए. दिव्वे देवरमणे पत्ते यावि होत्या) उस समय देवों का कोडनकर्म हो कि व्याकुलीभून था, कहकहधून था-प्रमोद से कलकल जिनमें हो रहा था ऐसा था, अर्थान--निरन्तर जो नाटय, गीन एवं वादन क्रियाओं में विविध प्रकार के अभिनयादिको का दर्शन दिय विदिशवर्ती दर्शकननों को हो रहा था. उस समय उनके अन्तःकरणों में प्रमोदसिन्धु (आनन्द का मागा) अपनी पूर्णमात्रा से लहरा रहा था. अतः उनके मुरब से अनायास ही प्रशंसा स्मक बचनों का उच्चारण बडे जोर से हो जाता था-उमसे उस समय एला भारी कोलाहल मच जाता था. हम कारण वह नाटय, गीतादिक कार्य प्रमोद से कलकल बेत यहां प्रकट किया गया है। (नपण ते हवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समगस्प भगवओ महावीरस्म मोत्थियं (गीए मणहरे न मगहरे) शत गीत मना र तु अने नाटय मह२ हेतु (मणहरे वाइए) पनि मनाङ२ तुः (अप्पिनलभूए कहकहभूए, दिब्वे देवरमाणे पवने यावि होत्था) ते समये देवानुनी ४ २ व्याशीभूत तु, -- કહભૂતુ હતુ આનંદમાં આવીને કલકલ જેમાં થઈ રહ્યું હતું એવું એટલે કે નાટય ગીત તેમજ વાહન ફ્લિાઓમાં જે સતત ઘણી જાતના અભિનયે વગેરે દર્શક જોઈ રહ્યા હતા ત્યારે તેમનાં હૃદયમાં આનંદ સાગર સંપૂર્ણપણે તરંગિત થઈ રહ્યો હતે એથી તેમને મેંથી અનાયાસ જ પ્રશંસાત્મક વચનનું ઉચ્ચારણ મોટા સાદે થઈ જતું હતું. તેથી ત્યાં ભારે શે ર—ઘાંઘાટનું વાતાવરણ ઉત્પન્ન થઈ જતું હતું. એથી જ તે જય, ગીત વગેરે કાર્ય પ્રમોદથી કલકલમૂત આમ પ્રકટ કરવામાં साव्यु छ. (तएणं ते वह देवकुमारा य देवकुमारीओ य समणस्म भगवी महावीरस्स सोस्थिय सिरिवच्छ गंदियात्तवद्रमाणगभदामण कलसमञ्छदप्पण