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________________ २२७ सुबोधिनी टीका. सू २८ भगवद्वरा सूर्या 'सुरिया भाइ समणे' इत्यादि टीका-सुर्याभ इति-हे सूर्याभ इति सम्बोध्य श्रमणो भगायान् महा वीरः सूर्याभ देवम् एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम् अवादीत हे सूर्याभ ! एतद्-वन्दनादि पुराणं चिरकालादागतं, यद्वा-देवपरम्परागतं एतदजीजीतकल्पः कृत्यं - कर्तव्यम् करणीयं- सर्वैराचरणीयम् तथा आचींग प्राचीन`राचरितम्, तथा-अभ्यनुज्ञातम् अनुमोदितम्, यत् खलु भवन पनि वानव्यन्तर वन्दित्वा च ततः पश्चात् स्वानि स्वानि निजानि निजानि नामगोत्राणि - नामानि गोत्राणि च कथयन्ति उच्चान्ति तत्-चन्दन नमस्यननामगोत्रकथनं हे सूर्याभ ! पुराणं यावद्भ्यनुज्ञातम् अर्थात् पुराणमेतत् भ जीतमेतत् सूर्याभ देव अर्हत भगवन्तो को वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं, बन्दना नमस्कार करके फिर अपने २ नामगोत्रों को कहते हैं (तं पौराणमेयं मुरियामा ! जान अब्भणुष्णायसेयं मुरियामा ! ) अतः हे सूर्याभ ! यह निरकार्य पुरातन वद्यकृत्य वन्दन नमस्कार करके नामगोत्र का कथनरूप है यावत् अभ्यनुज्ञात है । टीकार्थ- इस सूत्र का टीकार्थ इस मूलार्थ के जैसा ही है. परन्तु जो टोका में कहीं २ पर विशेषता मकर की गई है वह इस प्रकार से हैं - यह देवबन्दनादि कर्म पुराण है - चिरकाल से चला आ रहा है अथवा बाद ''अपने परम्परा से चला आ रहा है | ना नमस्कार करने के नामगोत्र का कथन करना यह भी पुराण है "जाव अभगुण्गाय' में जो यावत् पद आया है उससे यहां 'जीवमेयं मूरियाभा ! किचमेयं मूरि દેવ અહું તે ભગવાને વંદન કરે છે; નમસ્કાર કરે છે, વદના તેમજ નમસ્કાર शने पछी पोत पोताना नामगोत्रोनुं उभ्यारण १२ 9. (तं राणमेयं मूरि यामा ! जाव अब्भणुण्णायमेयं सूरियाभा ! ) येथी हे सूत्रल ! या निश्वय કામવંદન નમસ્કાર કરીને નામગોત્રનું ઉચ્ચારણ રૂપ કામ પુરાતન છે અભ્યનુજ્ઞાત છે. टीडार्थ- या सूत्रनो अथ भूस यांथ देवो न छे. या क्षमां ने સ્થાને વિશેષ કંથન સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે ते भा प्रभाणे छे. या वहन वगेरे छ ચિરકાલથી થતાં આવી રહ્યાં છે. વંદના નમસ્કાર કર્યા પછી પાતા છે. ટવ પર પરાથી ચાલતાં આવે નામ ગાત્રોનું ઉચ્ચારણ કરવું તે પણ भाषा पुराल B. ‘जात्र अध्मगुण्गाय' भा ने मेयं म्रियामा' क्रिचमेयं सुरियामा ! करविज्जमेयं सुरियामा आइयमेवं तेथी मडी' 'जीय
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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