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________________ २१२ प्रश्नापमास्त्र तत-अथ, ननम्-विर कृष्णलेश्या नीलळेश्यां प्राप्य परस्परावयवसंस्पर्शमासाद्य तदरूपतया नीललेश्यारूपतया नीललेश्या स्वभावतयेत्यर्थः रूप शब्दस्य स्वभाववाचित्वात, भूयो भूयः-पौन पुन्येन परिणमति इत्यग्रेण सम्बन्धः, एवं किम् तदपर्णतया-नीललेश्या द्रव्यवर्ण तया, तद्गन्धतया नीरलेश्या द्रव्यगन्धतया, तद्रसतया-नीलले श्यायोग्य द्रव्यरसतया तत्स्पर्श तया-नीललेश्या योग्य द्रव्यस्पर्शतया भूयो भूयः परिणमति? तिर्ययोनिकमनुष्यानधिकृत्येदमवसेयम्, भगवानाह-'हंता, गोयमा ! हे गौतम ! हन्द-सत्यम् ‘क हलेस्सा नीललेरस पाप्य ता रूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमइ' कृष्णलेश्या नीलले श्याम्-नीललेश्या योग्य द्रव्यं प्राप्य-परस्परावयवसंस्पर्शमासाद्य तद्रूपतया-नीललेश्या पोग्यद्रव्यरूपतया यावत् नौललेश्या योग्यद्रव्यगन्धतया तद्योग्यद्रव्यरसतया तद्योग्यद्रव्यस्पर्शतया भूयो भूयःअनेकवारं परिणमति, तथा च यदा कृष्णलेश्या परिणतस्तियामनुष्यो वा भवान्तरसंक्र मणं कर्तुमिच्छु नीललेश्या योग्यद्रव्याणि उपादत्ते तदा-नीललेवा योग्य द्रव्यसम्पर्कात् तानि कृष्यलेश्या योग्यानि द्रव्याणि तथाविध जीवपरिणा लक्षणं लह का रिकारणमासाद्य परिणत होती है ? इसी प्रकार क्या नीललेश्या के द्रव्यों के वर्ण रूप में, उसके गंध रूप में, उसके रस रूप में, उसके स्पर्श रूप में बार-बार परिणत होती है ? यह कथन तियचों एवं मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए। भगवान्-हाँ गौतम ! सत्य है । कृष्णलेश्या, नीललेश्या के योग्य द्रव्यों को प्राप्त करके नीललेश्या के योग्य द्रव्यों के रूप में, थावत् नीललेश्या के वर्ण, रस, गंध और स्पर्श के रूप में परिणल हो जाती है। यह परिणमन अनेकों वार होता है । जब कृष्णलेश्या का परिणमन बाला कोई मनुष्य अथवा तिथेच भवान्तर में जाने वाला होता है और वह नीललेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है, तब नीललेश्या के योग्य द्रव्यों के सम्पर्क से वे कृष्णलेश्या के योग्य द्रव्य जीव के उस प्रकार के परिणाम रूप सहकारी कारण को प्राप्त करके नाललेण्या के योग्य द्रव्य के रूप में परिणत हो जाते हैं, क्योकि पुदगलों में विभिन्न પરસ્પર અવયના સ્પર્શને પામીને નીકલેશ્યાના સ્વરૂપમાં પુનઃ પુનઃ પરિણત થાય છે? એજ પ્રકારે શું નીલલેશ્વાના દ્રવ્યોના વર્ણરૂપમાં, એના ગંધરૂપમાં, એના રસરૂપમાં, અને સ્પર્શરૂપમાં વારંવાર પરિણત થાય છે? આ કચન તિર્થ" તેમજ મનુષ્યની અપેક્ષાથી સમજવું જોઈએ. શ્રી ભગવાન-હા, હે ગૌતમ ! સત્ય છે કૃષ્ણલેશ્યા, નિલલેશ્યાને ચગ્ય, દ્રવ્યને પ્રાપ્ત કરીને, નીલલેશ્યાના એગ્ય દ્રવ્યના રૂપમાં, યાવત, નલલેશ્યાના વર્ણ રસ, ગધુ અને સ્પર્શના રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે. આ પરિણમનવાળે કે મનુષ્ય અથવા તિય * ભવાનરમાં જનાર હોય છે, અને તે નીલવેશ્યાને યોગ્ય દ્રવ્યના રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે, કેમકે દૂગલામાં વિભિન્ન પ્રકારથી પલટવાને સ્વભાવ છે. ત્યાર બાદ તે જીવ 4
SR No.009341
Book TitlePragnapanasutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size62 MB
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