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________________ ૮૪ शापना , " जातिवाचकत्वेऽपि जाते : समानपरिणामत्वात् समानपरिणामस्य चासमानपरिणामाविना भावित्वात् असमानपरिणामसंचलितस्यैव समानपरिणामस्व मुख्यत्वेन विवक्षायाम् असमानपरिणामस्य प्रतिव्यक्तिभिन्नत्वेन तदभिधाने बहुवचनोपपत्तिः घटा इत्यादिवत् समानपरिणामस्यैव मुख्यत्वेन विवक्षायान्तु असमानपरिणामस्य गौणत्वेन सर्वत्रापि समानपरिणामस्य एकत्वात् तदभिधाने एकवचनोपपत्तिः, सर्वोऽपि वटः पृथुवृध्नोद्राद्याकारः, इत्यादिवत्, प्रकृतेऽपि मनुष्या इत्यादाव समानपरिणामसम्बलितस्यैव समानपरिणामत्य मुख्यत्वेन विवक्षितत्वात् तस्य चानेकत्यमावाद् बहुवचनमुपपद्यते इति भावः गौतमः पृच्छति - 'अह भंते ! मस्ती महिसी वा हस्थिणिया सीही कधी विगी दीदिवा अच्छी तरच्छी परस्सरा किन्तु जाति सदृश परिणाम रूप होती है और सदृश परिणाम विसदृश परि नाम का अविनाभावी होता है । इस प्रकार विसदृश परिष्तम से युक्त सदृश परिणाम की ही प्रधानता से विवक्षा की जाती है । दिसहरा परिणाम प्रत्येक व्यक्ति (विशेष) में भिन्न होता है, अतएव उसका जब कथन किया जाता है तव बहुवचन का प्रयोग संगत ही है, 'घटाः' इत्यदि बहुवचन के समान । जब केवल सदृश परिणाम की प्रधानता से विवक्षा की जाती है और विसदृश परि णाम को गौण कर दिया जाता है, तब सदृश परिणाम क्योंकि एक होता है, अतएव उसका प्रतिपादन करने में एक वचन का प्रयोग भी संगत है । जैसे 'सव घट पृथुवुनोदराकार' अर्थात् मोटे और गोल पेट वाला होता है । ' इस प्रकार 'मणुस्सा' (मनुष्याः) इत्यादि प्रयोगों में असमान परिणाम से युक्त समान की ही मुख्य रूप से विवक्षा की गई है और असमान परिणाम अनेक होता है, अतएव बहुवचन का प्रयोग उचित ही है । छे-से ही हो ! यूर्वोस्त 'मणुस्सा' आदि शब्द लतिना पाया है, हिन्तु लति सदृश પરિણામ હૈાય છે અને સદશ પરિણામ વિસદેશ પરિણુામના અવિનાભાવી હાય છે. એ પ્રકારે વિદેશ પરિણામથી યુક્ત સદશ પરિણામની જ પ્રધાનતાર્થી વિવક્ષા કરાય છે. વિસદેશ પરિણામ પ્રત્યેક વ્યક્તિ (વિશેષ)માં ભિન્ન હોય છે, તેથી જ તેનુ જ્યારે કથન ४राय हे त्यारे महुवयनको प्रयोग सगत थाय छे. 'घटा इत्यादि' महुवननी नेम જ્યારે કેવળ સદ્દેશ પરિણામની પ્રધાનતાથી વિવક્ષા કરાય છે અને વિસટશ પરિણામાને પરિણામ એક હૈય છે, તેથી જ તેનુ' પ્રતિપાદન संगत है. प्रेम 'धा घडा 'पृथुवुनोदराकारः' भोटा ગૌણુ કરી દેવાય છે. ત્યારે સદેશ ४२वाभा श्रेष्ठ वयना प्रयोग य અને ગેાળ પેટવાળા હાય છૅ. थे प्रारे 'मणुस्सा' (मनुष्याः) પરિણામની જ મુખ્ય રૂપથી વિવક્ષા તેથીજ મહુવચનના પ્રવેગ ઉચિત છે, त्याहि प्रयोगोभां असमान परिया भधीयुक्त समान કરેલ છે અને સમાન પરિણામ અનેક હાય છે,
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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