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________________ प्रमैयबोधिनी टीका पद ११ सू० २ भाषापदनिरूपणम् 'जा य इत्थीवऊ जा य पुमवऊ जा य णपुंसगवऊ पणदणी णं एसा भासा न एसा भासा मोसा'-या च स्त्रीवाकू-स्त्रीलिङ्गप्रतिपादिका खट्वालतेत्यादिलक्षणा, या च पुंशकू पुंल्लिङ्गप्रतिपादिका-घटः पट इत्यादिलक्षणा, या च नपुंसकवाक्-कुडय काण्डमित्यादिलक्षणा भापा वर्तते सा एपा प्रज्ञापनी खलु भापा भवति नेपा मापा सृपा अवति, शब्दप्रवृत्तिप्ररूपणे पूर्वोक्तानि 'स्तनकेशवती नारी'-इत्यादि स्त्रयादिलक्षणानि स्त्रीलिङ्गादि शब्दाभिधेयानि 'भवन्ति किन्तु अभिधेयधर्माः इयमयमिदं शब्दव्यवस्था हेतवो शुरूपदेशपारम्पर्यगम्याः स्त्रीलिगादि शब्दाभिधेयाः, भवन्ति, तेपामभिधेयधर्माणां तत्त्वतो लोकव्यवहारसिद्धत्वात्, तथा चोक्तम्-"इयमयमिदमिति शब्दव्यवस्थाहेतुरभिधेयधर्मः उपदेशगम्यः स्त्री पुनपुंसकत्वानि" इति, अतः शाब्दव्यवहारापेक्षया यथावस्थितार्थप्रतिपादनात् प्रज्ञापनीयं खलु भाषा भवति, दुष्ट विवक्षया अनुच्चारितत्त्वात् परपीडाजनकत्वाभावाच्च नैषा मृपेति भावः । ___ भगवान् उत्तर देते हैं-हे गौतन ! हां, यह भाषा सत्य है, मृषा नहीं है। यह जो स्त्रीवचन है, जैसे खट्या, लता आदि, यह जो पुरुष वचन है, जैसे घट, पट आदि और यह जो नपुंसकवचन है, जैसे कुड्यम्, काण्डम् आदि, यह भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं है । जब किसी शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो वह शब्द पूर्वोक्त स्त्री, पुरुष या नपुसक के लक्षणों का बाचक नहीं होता। ये विभिन्न लिंगों के शब्द 'इयम्, अयम् तथा इदम्' शब्दों की व्यवस्था के कारण होते हैं और गुरु के उपदेश की परम्परा से जाना जाता है कि कौन शब्द स्त्रीलिंगी, कौन पुलिंगी और कौन नपुसकलिंगी है। उनके अभिधेय धर्म वस्तुतः लोकव्यवहार ले सिद्ध होते हैं । कहा भी है-'इयममिदमिति शब्दव्यवस्था हेतु रभिधेय धर्मः उपदेशगम्यः स्त्रीनपुसकत्वानि' इसका आशय ऊपर आ गया है । इस प्रकार शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से यथार्थ वस्तु का प्रतिपादन करने के कारण यह आषा प्रज्ञापनी है। इसका प्रयोग न तो किसी 1 શ્રી ભગવાન ઉત્તર આપે છે- હે ગૌતમ ! હા આ ભાષા સત્ય છે, મૃષા નથી આ જે સ્ત્રીવચન છે, જેમકે ખવા, લતા આદિ, આ જે પુરૂષવચન છે જેમ ઘટ પટ આદિ અને આજે નપુંસક વચન છે, જેમ કુડયમ આદિ- એ ભાષા પ્રજ્ઞાપની છે. મૃષા નથી. જ્યારે કોઈ શબ્દનો પ્રવેગ કરાય છે તે તે શબ્દ પૂર્વોક્ત સ્ત્રી પુરૂષ અગર નપુંસકના सक्षएाना पाय नथी थता. विलिन लगाना शह 'इयम्, 'अयम्' तथा इदं શબ્દોની વ્યવસ્થાને કારણે થાય છે અને ગુરૂના ઉપદેશની પર પરાથી સમજાય છે કે ક્ય શબ્દ સ્ત્રીલિંગી, કણ પુલિગી અને કોણ નપુંસકલિંગી છે. તેમના અભિધેય ધમ १स्तुत: व्यवहारथी सिद्ध थाय छे. ४ ५ छ इयमदमिदमिति शब्दव्यवस्था हेतु रभिधेयधर्मः उपदेशगम्य स्खीपुनपुंसकत्वानि" तेनी २॥२५२ मावी गयो छे. 2 शत શાબ્દિક વ્યવહારની અપેક્ષાએ યથાર્થ વસ્તુનું પ્રતિપાદન કરવાના કારણે આ ભાષા પ્રજ્ઞા
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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