________________
९१६
प्रज्ञापनासूत्रे
एवमुच्यते - जघन्यगुणकालकानां पुद्गलानामनन्ताः पर्ययाः शताः एवमुत्कृष्टगुणकालकोsपि, अजघन्यानुष्टगुणकालकोऽपि एवञ्चैव नवरं व्यस्थाने पर् स्थानपतितः, एवं यथा कृष्णवर्णपर्यवानां वक्तव्यता fear aer mrat वर्णगन्धरसस्पर्शानां वक्तव्यता भणितव्या, यावद् - अजघन्यात्कुष्टरक्षः, स्वसे तुल्य होता है (अबसेसेहिं वण्णगंधरस फासपज्जवेहि पट्टणचडिए) शेष वर्ण, गंध, रस और स्पर्धा के पर्यायों से पधानपतित होता है (से तेणणं गोवमा ! एवं कुच्च) हे गौतम! इस ऐला कहा जाता है कि ( जण्णगुणकालयाणं पोलणं अना पज्जवा पण्णत्ता) जघन्यगुण काले पुगलों के अनन्त पर्याय कहे हैं
( एवं उक्कोसगुणकाल वि) इसी प्रकार उत्कृष्टगुण कृष्ण भी (अजणमणुक्को सगुणकालय वि एवं चैव सध्यमगुण कृष्ण भी इसी प्रकार ( गवरं सहाणे छट्टाणवडिए) विशेष यह स्वस्थान में भी पह स्थानपतित होता है ( एवं जहा कालवण्णपज्जवाणं वक्तव्यमा भणिया तहा साग चि) इस प्रकार जैली काले वर्ण की वक्तव्यता की वैसी शेष (वण्णगंधर सफासाणं वक्तव्या माणिकवा) वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों की वक्तव्यता कहनी चाहिए (जाब) र (अजह पण मणुको सल्लुक्खे) मध्यमगुण रूक्ष (माणे ब्रह्मणवडिए) स्वस्थान में पस्थानपतित है ( से तं विभजीवपज्जवा) यह रूपी अजीयों के
तुझ्या थाय छे (असंहि वण्ण गंध रस फास पज्जवेहिय छड्डाण वडिए) शेप वर्षा, गंध, रस, स्पर्शना पर्यायाथी पट्स्थान पतित थाय छे से तेणट्टे गोयमा ! एवं वुच्च३) हे गौतम! मेरो भव े (जहण्ण गुणकालयाणं पोग्गलाण अणता पज्जवा पण्णत्ता ) धन्य गुषु प्रणा युगसोना અનન્ત પર્યાય કહ્યા છે
( एवं उक्कोसगुणकालए वि) से प्रारे दृष्ट गुगु दृष्यु पशु (अजहमको गुणका वि एवं चेव ) मध्यम शुशु है या मेन अक्षरे (नवरं सट्टाणे छट्टाणवडिए) विशेष मे स्वस्थानभां यशु पट्स्थान पतित थाय है ( एवं जहा कालवण्णपज्जवाणं वक्तव्वया भणिया तहा सेसाण वि) से प्रारे लेवी आणा वर्षानी वहुतव्यता उडी तेवी शेष (वण्णगंधरसकासाणं वत्तव्वया भाणियच्चा) वर्षा, गंध, रस ने स्पर्शना पर्यायानी वक्तव्यता हेवी ले मे (जांव) यावत् (अजहणमणुकोसलुक्खे) मध्यम गुण ३क्ष (सट्टणि छट्टाणवडिए) स्वस्थानभां पटस्थान पतित थाय छे (सेत्तं रुवि अजीव पजवा) मा ३थी