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________________ प्रबोधिनी टीका पद ५ . १४ हिप्रदेशिकपुद्गलपर्यायनिरूपणम् ૮૨૭ छाया - जघन्यावगाहनकानां भदन्त । द्विप्रदेशिकानां पृच्छा, गौतम ! अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त, एवमुच्यते - जघन्यावगाहनको द्विप्रदेशिक : स्कन्धो जघन्यावगाहनकस्य द्विप्रादेशिकस्य स्कन्धस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः प्रदेशार्थतया तुल्यः अवगाहनार्थतया तुल्यः, स्थित्या चतुस्थानपतितः कृष्णवर्णपर्यवः पदस्थापतितः शेषवर्णगन्धरसपर्यवैः पदस्थानपतितः शीतोष्णस्निग्ध रूक्ष स्प , वन् ! जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी पुलों के संबंध में प्रश्न ? (गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं ( से केणट्टेणं मते ! एवं बुच्चई जहण्णोगाहणगाणं दुपएसियाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा गया है कि जघन्य अवगाहना वाले छिप्रदेशी पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ? (गोमा ! जहण्णोगाहणए दुपसिए खंधे जहण्णोगाहणस्स दुपए सियस्स खंधस्स दव्यट्ट्याए तुल्ले) हे गौतम ! जघन्य अवगाहना वाला द्विप्रदेशी स्कंध जघन्य अवगाहना वाले विदेशी स्कंध से क्रय की दृष्टि से तुल्य है ( परसहयाए तुल्ले) प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है ( ओगाहट्टयाए तुल्ले) अवगाहना की अपेक्षा तुल्य है (टिईए चाणवडिए स्थिति से चतुःस्थानपतित है ( कालवण्णपज्जवेहिं छाडिए) काले वर्ण के पर्यायों से पदस्थानपतित होता है (सेसव गंधरस पज्जवेहिं छाणवडिए) शेष वर्ण, गंध, रस के पर्यायों से षट्स्थानपतित (सीय - उसिण- गिद्ध - लुक्फासपज्जवेहिं छहाणचडिए) शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शो से स्थानपतित होता है भवगाहुनावाणा द्विप्रदेशी युगलाना सम्बन्धमा प्रश्न ? (गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय ह्या छे ( से केणदृणं मंते । एवं बुच्चइ - जह ण्णोगाहणगाणं दुपएसियाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! शा अरणे मेवु કહ્યું' કે જઘન્ય અવગાહનાવાળા દ્વિપદેશી પુદગલાના અનન્ત પર્યાય કહ્યા છે? (गोयमा ! जहण्णोगाहणए दुपएसिए खंधे जहण्णोगाहणम्स दुपए सियरस संघरस दव्वट्टयाए तुल्ले) हे गौतम । धन्य अवगाहना वाणा द्विपदेशी सुन्ध धन्य अवशानावाणा द्विप्रदेशी सुन्धथी द्रव्यनी दृष्टिमे तुझ्य छे (परसट्टयाए तुल्ले) अहेशानी अपेक्षाये तुझ्य छे (ओगाणट्टयाए तुल्ले) अवगाहुनानी अपेक्षाओं तुझ्यछे (ठिईए चट्टाणवडिए) स्थितिथी तुस्थान युतित है (कालवण पज्जवेहिं छट्टाणवडिए) ाणा वर्षाना पर्यायथी पट्स्यान पतित थाय छे (सेन वण्णगंधरसपज्जवेहिं छाणवडिए) शेष वर्षा, गंध, रसना पर्यायाथी पटस्थान पतित थाय छे (सी उसिद्धि लुम्फासपज्जवेहिं छट्टाणवडिए) शीत, प्यु, स्निग्ध अने ३क्ष स्पर्शोथी षटस्थान पतित धाय हे (से नेणट्टेणं गोयमा ! एवं चुच्च
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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