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________________ प्रमैयबोधिनी टीका पद ५ सृ.६ नैरयिकाणां पर्यायनिरूपणम् १५३ वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः पटस्था नपतितो भवति. 'आभिणियोहियनाणपज्जवे हिं तुल्ले' आभिनियोधिकजानपर्यवेन्तुल्यो भवति, 'मुगनाणपजावे हिं, ओहिनाणपज्जवेहि छट्ठाणवडिए' शुतज्ञानपर्यवैः, अबविज्ञानपर्यवैश्च पदस्थानपतितो भवति, 'तिहिं दसणेहिं छहाणवडिए' त्रिभिर्दर्शनैः-चक्षुरचक्षुरवधिलक्षणदर्शनपयवः पट्स्थानपतितो भगति, ‘एवं उकोसाभिणियोहिय नाणीवि' एवस्-पूर्वोक्तरीत्या, उत्कृष्टाभिनिवोधिकज्ञानी अपि नैरयिकः उत्कृष्टामिनियोधिकजानिनो नैरयिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्यतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुः स्थान'पतितः, स्थित्या चतु:स्थानपतितः, वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवेः पट्स्थानपतितः, आभिनिवोधिकज्ञानपर्यवैस्तुल्यः, श्रुतज्ञानपर्यवैः, अवधिज्ञानपर्यवेः पट्स्थानपतितः, त्रिभिर्दर्शनः पट्स्थानपतितो भवति, 'अजहण्णमणुकोसाभिणियोहियणाणीवि एवं चेव' अजयन्यानुत्कृष्टाभिनियोधिकज्ञानि अपि नैरपिकः एव चैत्र- पूर्वोक्त वदेव अजघन्यानुरकृष्टाभिनिवोधिज्ञानिनो नरयिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुः स्थानपतितः, स्त्यिा चतु:स्थानपतितः वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवेः पस्यानपतितः, श्रुतनानपर्यवः, अवधिज्ञानपर्यवैः पट्स्थानपतितः, त्रिभिदेशनः पट्स्थानपतितो भवतीति भावः, किन्तु ‘णवरं आभिणिवोहियनाणपज वेहिं सहाणे छहाणपडिए' नवरं पूर्वापेक्षया है, वर्ण गंध रस और स्पर्श से पट्स्थानपतित है, आभिनियोधिक ज्ञान के पर्यायों से तुल्य है, श्रुतज्ञाज्ञान और और अवधिकज्ञान के पर्यायों से षस्थनपतित है, तीन दर्शनों की अपेक्षा पदस्थानपतित है। ___अजघन्य-अनुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम आभिनियोधिक ज्ञानी के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए । अर्थात् एक मध्यम आभिनियोधिक ज्ञानी दूसरे मायम आभिनिवोधिक ज्ञानी से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है, प्रदेशों की दृष्टि से तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित होता है, स्थिति की दृष्टि से भी चतुःस्थानपतित होता है, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों से पट्स्थानपतित होता है, श्रुतज्ञान और · अवधिज्ञान के पर्यायों से पट्स्थानपतित होता है, तीन दर्शनों के पर्यायों से भी षट्रस्थानपतित होता है । विशेष यह है कि आभिनिवोधिक ज्ञान के पर्यायों की दृष्टि से स्वस्थान में भी पदस्थाપણ ચતુઃસ્થાન પતિત થાય છે, વર્ણ, ગંધ, રસ અને કાશના પર્યાથી પટસ્થાન પતિત થાય છે. શ્રુતજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાનના પયાથી છ સ્થાન પતિત થાય છે, ત્રણ દર્શના પર્યાયોથી પણ છ સ્થાન પતિત થાય છે, વિશેષ એ છે કે આભિનિધિજ્ઞાનના પર્યાયની દષ્ટિએ સ્થાનમાં પણ
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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