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________________ प्रमेयबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.२७ ब्रह्मलोकादिदेवानां स्थानादिकम् ९२१ पञ्चाशतो विमानावाससहस्राणाम्, पञ्चाशतः सामानिकसाहस्रीणाम्, चतसृणाञ्च पञ्चाशताम् आत्मरक्षकदेवसाहस्रीणाम् , अन्येपाञ्च, बहूनां यावद् विहरति, कुत्र खल भदन्त ! महाशुक्राणाम् देवानां पर्याप्तापर्याप्तानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि ? कुत्र खलु भदन्त ! महाशुक्रा देवाः परिवसन्ति, गौतम ! लान्तकस्य कल्पस्य उपरि सपक्षं सप्रतिदिक् यावद् उत्प्रेत्य अत्र खलु महाशुक्रो नामकल्पः प्रज्ञप्तः, प्राचीनप्रतीचीनायतः, उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः यथा ब्रह्मलोकः, नवरम् लान्तकावतंसक है (एए देवा) ये देव (तहेव) उसी प्रकार (जाव विहरंति) यावत् विचरते हैं (लंतए एत्थ देविंदे देवराया परिवसइ) यहाँ लान्तक नामक देवेन्द्र देवराज निवास करता है (जहा सणंकुमारे) जैसा सनत्कुमारेन्द्र (नवरं) विशेष (पण्णासाए विमाणाचाससहस्साणे) पचास हजार विमानों का (पण्णासाए सामाणियसाहस्सी) पचास हजार सामानिक देवों का (चउण्हं य पण्णासाणं आयरक्खदेवसाहस्सीर्ण) चार पचास हजार अर्थात् दो लाख आत्मरक्षक देवों का (अन्नेसिं च पहणं) अन्य बहुतों का (जाव विहरइ) यावत् विचरता है। (कहि णं भंते ! महासुक्काणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त महाशुक्र देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? (कहि णं भंते ! महासुक्का देवा परिवसंति ?) हे भगवन् महाशुक्र देव कहां निवास करते हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! (लंतगस्स कप्पस्स उप्पि) लान्तक कल्प के ऊपर (सपक्खि सपडिदिसिं) समान दिशा और समान विदिशा में (जाव उप्पइत्तो) यावतू जाकर (एत्थणं) यहां (महासुक्के नामं कप्पे पण्णत्ते) महाशुक नामक शत (जाव विहरंति) यावत् वियरे छ (लंतर एत्थ देविंदे देवराया परिवसइ) मडि सान्त नाम हेवेन्द्र १२८ निवास ४२ छे (जहा सणंकुमारे) म सनमार हेवन्द्र (नवर) विशेष (पण्णासाए विमाणावाससहस्साणं) पयास उत२ अर्थात् मे दाम मात्भ२६४ हेवोना (अन्नेसि च बहूण) मने यीन घाना (जाव विहरइ) यावत् पियरे छे. (कहिणं भंते । महासुक्काणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता १) ભગવન પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત મહાશુક દેના સ્થાન કયા કહેલા છે ? (कहिणं भंते । महासुक्का देवा परिवसंति ?) के भगवन् माशु । ४या निवास ४रे छ? (गोयमा) ॐ गौतम (लंगतस्म कस्परस उम्पिं) दान्त: ४६५न। ५२ (सपक्खिं सपडिदिसं) समानाहि॥ गन विहिशोभा (जाय उपपइत्ता) यावत् छन (एत्थणं) डि (महासुक्के नाम कप्पे पण्णत्ते) माशु नामन। ४६५ हो छ, प्र० ११६
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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