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________________ प्रमेयोधिनी टीका f. पद २ सू.२६ ईशानादिदेव स्थानानि ८९३ - देशभागे पञ्चावतंसकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - अशोकावतंसकः, सप्तपर्णावतंसकः, चम्पकावतंसकः, चूतावतंसकः, मध्ये अत्र सनत्कुमारावतंसकः, खलु अवतंस - काः सर्वरत्नमयाः, अच्छा यावत् प्रतिरूपाः, अत्र खलु सनत्कुमारदेवानां पर्याप्तापर्याप्तानाम् स्थानानि प्रज्ञप्तानि त्रिष्वपि लोकस्य असंख्येयभागे, तत्र खलु वहवः सनत्कुमारदेवाः परिवसन्ति, महर्द्धिका यावत् प्रभासयन्तो विहरन्ति, नवरम् अग्रमहिष्यो न सन्ति सनत्कुमारोऽत्र देवेन्द्रो देवराजः परिवसति, अरजोऽम्बरधरः शेषं यथा शक्रस्याग्रमहिषीवर्जम्, नवरम् चतसृणां विमाणा) वे विमान (सव्वरयणामया) सर्व रत्नमय (जाव पडिवा) यावत् प्रतिरूप हैं ( तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेखभागे) उन विमानों ' के ठीकबीचों बीच (पंच वडिंलगा पण्णत्ता) पांच अवतंसक कहे हैं ( तं जहा ) वे इस प्रकार (असोगवार्डसए) अशोकावतंसक (सत्तवण्णडिसए) सप्तवर्णावतंसक (चरगवडिसए) चम्पकावतंसक (चूयसिए) आम्रावतंसक (मज्झे एत्थ सकुमार व डिसए) इनके मध्य में सनत्कुमारावतंसक है (ते णं वर्डिसया) वे अवतंसक (सम्वरयंणामया) सर्वरत्नमय (अच्छा जाव पडिवा) स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं (एत्थ णं सर्णकुमारदेवाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता) यहां पर्याप्त और अपर्याप्त सनत्कुमार देवों के स्थान कहे गए हैं (तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में (तत्थ णं सर्णकुमार देवा परिवसंति) वहां सनत्कुमार देव निवास करते हैं (महिड्डिया जाव पासेसाणा विहरंति ) महान् ऋद्धि के धारक यावत् प्रकाशित करते हुए रहते हैं (नवरं अग्ग प्रतिय छे (तेसिणं विमाणाण वहुमज्झदेसभा गे) ते विमानानां ही पस्यो १२ (पंच घडि सगा पण्णत्ता) पाय यावतंस ह्या छे (तं जहा ) तेथे मा प्रारे (असोंगवर्डिसए) अशोडावतष (सत्तवण्णव डिंसर) सप्तपर्णावित स (चंपगवडिसए) थपडावत स ( चूयन डिसए) भावतंस (मज्झे एत्थ सणकुमार वर्डिसए) ोभनां भध्यमां सनत्कुभारावतस छे (तेणं वडि सए) ते भवत सौ (खव्वरयणमया) सर्व रत्नभय (अच्छा जाय पडिवा) स्वच्छ यावत् प्रतिइय छे (एत्थ णं सणकुमारदेवाणं 'पज्जत्तापज्जत्ताणं ठणा पण्णत्ता ) यहि पर्याप्त भने अपर्याप्त सनत्कुमार देवाना स्थान उडेला छे. (तिसुत्रि लोगस्स असंखेज्जइभागे) लाभां (तत्थ णं सण कुमारदेवा ત્રણે અપેક્ષાએથી લેાકના અસંખ્યાતમા परिषसंति) त्यां सनत्कुमार देव निवास १रे छे. (महिइडिया जाव पभासेमाणा विहरंति) भहान इद्धिना धा२४ यावत् प्राशित पुस्ता र छे (नवरं अग्गमहिसीओ णत्थि) विशेषता से छे से अहीं अमरिपियो होती नथी
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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