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________________ ४७४ प्रशापनास्त्रे अथोपदेशरुचिमाह-एए चेव उ भावे'-एतांश्चैव तु भावान जीवादि पदार्थान, 'जो परेण' यः परेण 'छउमस्थेण जिणेण व'-छद्मस्थेन जिनेन वा "उव द?'-उपदिष्टान् ‘सदहइ'-श्रदधाति-विश्वसिति, 'उवदेस रुइत्ति नायव्यो' एप उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः, अथ आज्ञारुचिमाह-'जो हेउ मयाणंतो'-यो हेतुम्-विवक्षितार्थ- साधव म् अजानन 'आणाए रोयए पवयणं तु-आज्ञायैव केवलया प्रवचनातु रोचयति, ‘एमेव'-एवमेव तत् प्रवचनोक्तमर्थजातम् 'नन्नहत्तिय' नान्यथेति च 'एसो आणारुई नाम'-एप आज्ञारुचिर्नाम विज्ञातव्यः ॥११९॥ अथ सूत्ररुचिमाह-'जो सुत्त महिज्जतो सुएण'-यः सूत्रमधीयानः श्रुतेन 'ओगाह ते तु 'सम्मत्त-सम्यक्त्वम्, 'अंगेण'-अङ्गेन-पूर्वोक्त द्वादशाङ्ग प्रविप्टेन 'वाहिरेण व'-अङ्गवाह्येन वा, 'सो सुत्तरुइत्ति णायचो'–स सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः ।१२०॥ अथ वीजरुचिमाह-एगपएणेगाई'-एकपदेन, अनेकानि 'पयाई'- पदानि 'जो परारई उ सम्मत्त'-यो यस्य प्रसारयति-प्रसरति तु सम्यक्त्वम् 'उदएव्व'-उदके इव 'तिल्लविदु'-तैलविन्दुः- यथा रदकैकदेशगतोऽपि तैलविन्दुः समस्तमुदक जो छदास्थ या जिन के दाग उपदिष्ट जीवादि तत्वों पर श्रद्धा करता है, उसका सम्यक्त्व उपदेशरुचि कहलाता है। जो पुरुष किसी अर्थ के साधक हेतु, यक्ति या तर्क को न जानता हुआ केवल जिनाज्ञा से ही तत्त्वों पर श्रद्धा करता है और समझता है कि ये तत्व ऐसे ही हैं, अन्यथा नहीं, उसका सम्यक्त्व आज्ञारुचि कहलाता है। जो पुरुष सूत्रों का अध्ययन करता-करता श्रुत के द्वारा ही सम्यक्रव को अवगाहना करता है, चाहे वह श्रुत अंगप्रविष्ट हो अथवा अंगवास हो, उसका सम्यक्त्व सूत्ररुचि कहा जाता है। जल में पड़े हुए तेल के चिन्द्र के समान जिसके लिए सूत्र का एक पद अनेक रूप में परिणत हो जाता है उसे बीजरुचि कहते हैं। જે પુરૂષ અર્થના સાધક હેતુ યુક્તિ તથા તર્કને ન જાણતો હોય પણ કેવળ જિનાજ્ઞાથીજ તત્વોપર શ્રદ્ધા કરે છે અને સમજે છે કે આ તો આવાં જ છે તેમાં ફેરફાર નથી તેનું સમ્યકત્વ આજ્ઞા રૂચિ કહેવાય છે. જે પુરૂષ સૂત્રોનું અધ્યયન કરતા કરતાં શ્રત દ્વારા જ સમફત્વમાં આવગાહના કરે છે, પછી તે શ્રુત અગ પ્રવિષ્ટ હોય અથવા અગ બાહ્ય હોય તે સમ્યક્ત્વ સૂત્ર રૂચિ કહેવાય છે. પાણિમા પડેલા તેલના ટીપાંની જેમ જેને માટે સૂત્રનુ એક પદ અનેક રૂપમાં પરિણત બની જાય છે તેને બીજા રૂચિ કહેવાય છે,
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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