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________________ प्रमेयवाधिनी टीका प्र. पद १ सू.३५ सभेदगनुष्य स्वरूपनिरूपणम् ४२१ स्त्रीपुरुपसंयोगेषु वा नारनिर्वभनेगु वा, सर्वे ध्येय अशुचिस्यानेपु, अत्र खलु संम्रछिममनुष्याः संम्रच्छन्ति, अनालस्य असंख्येयभागमात्रया अवगाहनगा। असंज्ञिनः, मिथ्यादृष्टयः अज्ञानिनः सामिा पर्गाप्तिभिरपर्याप्ताः अन्तर्मुहुर्तायुष्का एव कालं कुर्वन्ति, ते एते संभूछिममनुष्याः। ।०३५॥ टीका-अथ मनुष्यान् प्ररूपयितुमाह-'से किं तं मणुस्पा?' 'से' अथ __'किं तं' के ते कतिविधाः, मनुष्याः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-'मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता' मनुष्याः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-'संमुच्छिममणुस्सा य' समूच्छिमनुष्याथ, 'गातियमणुस्साय' गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुप्याच, अथ (थीपुरिससंजोएट वा) स्त्री-पुरुष के संयोग ले (नगरणिमणेतु वा) नगर की गटरों में (सम्वेसु चेव असुइट्टाणेसु) सभी अशुचि स्थानों में (एत्थ णं समुच्छिमअणुस्सा संमुच्छति) इन स्थानों में संमूछिम मनुष्य उतन्न होते हैं । (अंगुलस्त असंखेजइभागमेत्तार) अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र (ओगाहणाए) अवगाहना से (असणीमिच्छदिली अण्णाणी) असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि, और अज्ञानी होते हैं (सव्वाहि पजत्तीहिं अपजत्ता) सब पर्याप्तियों से अपर्याप्त (अंतोमुत्ताउया चेव) अन्तर्नुहर्त की आयु वाले ही (कालं करे ति) अर जाते हैं (से तं संमृच्छिम मणुस्सा) यह संमूर्छिम मनुष्यों को प्ररूपणा हुई।॥३५॥ टीकार्थ-अब मनु बों को प्ररूपणा प्रारंभ की जाती है। प्रश्न है कि मनुष्य कितने प्रकार के होते हैं ? भगवान् उत्तर देते हैं-मनुष्य दो प्रकार के कहे हैं-संभूमिमनुष्य और गर्भज मनुष्य । cileu ये शुभ (विगयजीवकलारेसु वा) भरेसा wain सेवरोभा (थीपुरिससंजोएसु वा) वी पु३५ना सयाम (यणिद्धमणेतु वा) नगरानी ४३॥ (सब्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु) यी पवित्र यामाना स्थानमा सर्वत्र (एत्थ णं संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति) २॥ स्थानमा स भूमि मनुष्य । उत्पन्न याय छे. (अगुलस्त असंखेजइभागमेत्ताए) 21 यात माग भार (ओगाहणाए) मानायी (असण्गी मिच्छदिट्टि अण्णाणी) २सशी, मिट. मन मज्ञानी हाय छ (समाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा) धी ५ोतियाथी म५य(अंतोमुहुत्ताउया चेव) मन्तभुहूतनी सायुष्यवाणा ४ (कालं करे ति) भरी तय छ (से त्त समुच्छिममणुस्सा) मा सभूमि મનુષ્યની પ્રરૂપણ થઈ. સૂ. ૩પ છે ટીકર્થ-હવે મનુષ્યની પ્રભુને પ્રારંભ કરાય છેપ્રશ્ન એ છે કે કેટલા પ્રકારના હોય છે ? શ્રી ભગવાન ઉત્તર આપે છે-મનુષ્ય બે પ્રકારના કહ્યા છે. સંભૂમિ
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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