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________________ प्रमेयबोधिनी टीका प्र. पद १ सू.३३ परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ३८९ उत्कण द्वादशयोजनानि, तदनुरूपां च खलु विष्कामवाहल्येन भूमि दारयित्वा - विदार्य खलु समुत्तिष्ठति, अलज्ञिनी, मिथ्यादृष्टिः, अज्ञानिनी, अन्तर्मुहूर्ताद्धायुष्कैव कालं करोति, सा-एपा आसालिका । ___टीका-अथ परिसपस्थलचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकान प्ररूपयितुमाह-'से किंतं परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ?' अथ के ते, कतिविधा इत्यर्थः परिसर्पस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः प्रज्ञताः ? भगवानाह-'परिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' -- परिसर्पस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः 'दुविहा पण्णत्ता'-द्विविधाः-द्विप्रकारकाः, 'तं जहा'-तद्यथा-'उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य'-उर:परिसर्पस्थलचरपञ्चन्द्रियतियग्योनिकाच, उरसा-वक्षअसंख्यातवें भाग मात्र को अवगाहना से (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट (वारसजोइणाइं) बारह योजन (तयणुरूवंच) और उसी के अनुरूप (विक्खंभबाहल्लेणं) लम्बाई-चौडाई ले (भूमि) पृथ्वी को (दालिसाणं) विदारण करके (समुढेइ) उत्पन्न होता है (असण्णी लिच्छदिट्ठी अण्णाणी) असंज्ञी, मिथ्याष्टि, अज्ञानी (अंतोसुहुत्ताद्धाउया चेव कालं करेइ) अन्तर्मुहर्त काल तक की आयु भोगकर मर जाता है (से त्तं आसालिया) यह आसालिका की प्ररूपणा हुई ॥३२॥ टीकार्थ-अब परिलप स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्थचों की प्ररूपणा करते हैं । प्रश्न है कि परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिथंच कितने प्रकार के होते हैं ? भगवान ने उन्तर दिया-वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प । जो अपनी छाती से रेंग कर चलते • थी (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट (बारस जोयणाइ) मा२ योन (तयणु रूवं च) मन तेना मनु३५ (विक्खंभवाहल्लेग) &ा ५९४थी (भूमि) पृथ्वीने (दालित्ताणं) विहार ४शन (समुद्रुइ) उत्पन्न थाय छ । (असण्णी मिच्छाट्ठिी अण्णाणी) २मसी, मिथ्याट, अज्ञानी (अंतोमुहुत्ताद्धाच्या चेव कालं करेइ) मन्तभुत १५ सुधानु मायुध्या सागवान भश तय छे. (से तं आसालिया) ॥ २मासासिनी प्र३॥ २४. ટીકાર્ય—હવે પરિસર્પ સ્થલચર પચેન્દ્રિય તિય ચોની પ્રરૂપણ કરે છે પ્રશ્ન એ છે કે પરિસર્પ સ્થલચર પચેન્દ્રિય તિર્યંચ કેટલા પ્રકારના હોય છે. ? શ્રી ભગવાને ઉત્તર આપ્ય–તેઓ બે પ્રકારના કહેવાય છે, જેમકે ઉર પરિસર્ષ અને ભુજ પરિસર્ષ જે પિતાની છાતીને ઘસે તે રીતે ચાલે છે તે સર્પ વિગેરે તિર્યંચ પ્રાણી ઉરપરિસર્ષ કહેવાય છે, અને જેઓ પિતાની
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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