SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयबोधिनी टीका प्र. पद १ सू २४ साधारणजीवलक्षणनिरूपण ३३७ अथ तेषामेव निगोदजीवानां प्रमाणं प्रतिपादयितुमाह-'लोगागासपएसे निगोयजीवं ठवेहि इकिकं । एवं मवि जसाणा हवंति लोगा अणंता उ' ॥१०॥ 'एकैकस्मिन् 'लोगागासपएसे' लोकाकाशप्रदेशे 'इक्विक्वं'-एकैकम् “निगोय जीवं'-निगोदजीवम् 'ठवेहि'-स्थापय, एवम् एकैकस्मिन् आकाशप्रदेशे एकैकजीवरचनया 'मविज्जमाणा'-पीयमानाः 'अगंता उ'-अनन्तास्तु 'लोगा' लोको:अनन्तलोकाकाशप्रमागाः निगोदजीवाः 'हवंति'-भवन्ति, अथ प्रत्येकवनस्पति जीव प्रमाणमाह-'लोगागासपए से परितजीचं ठरेहि इक्किमक एवं मविजमाणा हवंति लोगा असंखिज्जा' ॥१०१॥ 'लोमागालपरसे' एकैस्मिन् लोकाकाशप्रदेशे 'इक्किक'- एकैकम् 'परित्तजीवं परीनजीवं-प्रत्येकवनस्पतिजीवम् 'ठवेहि' भगवान के वचन ही इस विषय में परमाणभूत हैं। भगवान ने कहा है-'सूई की नौक में बराबर लिगोदकाम में असंख्यात गोले होते हैं, एक-एक गोले में असंख्यात-असंख्यात निगोद होते हैं और एकएक निगोद में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं।' ____ अब निगोदजीदों की संख्या का प्रतिपादन करते हैं-लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में यदि एक-एक निगोदजीव स्थापित किया जाय और उनका माप किया जाय तो उन सब जीवों को स्थापित करने के लिए अनन्त लोकों की आवश्यकता होगी। तात्पर्य यह है कि एक लोकाकाश में असंख्यात प्रदेश हैं, ऐसे-ऐसे अनन्त लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर अनन्त निगोदजीवों का परिमाण है। । . अब प्रत्येक बनस्पतिकाय के जीवों का प्रमाण कहते हैं-एक-एक लोकाकाश के प्रदेश में, प्रत्येक वनस्पतिकाय के एक-एक जीव को स्थापित किया जाय और इस प्रकार उनका माप किया जाय तो वे ભગવાને કહ્યું છે–સેયની અણી જેટલા નિગોદ કાયમી અસંખ્ય ગેળા હોય છે, એક એક ગોળામાં અસંખ્યાત અસ ખ્યાત નિગોદ હોય છે. અને એક એક નિગોદમાં અનન્ત જીવ હોય છે. હવે નિગદની સંખ્યાનું પ્રતિપાદન કરે છે કાકાશના એક એક પ્રદેશમાં જ એક એક નિગોદ જીવ સ્થાપિત કરવામાં આવે અને તેનું માપ લેવામાં આવે તો તે બધા જીવોને સ્થાપિત કરવા માટે અનન્તલોકની આવશ્યકતા થશે. તાત્પર્ય એ છે કે એક કાકાશમાં અસંખ્યાત પ્રદેશ છે, એવા એવા અનન્તકાકાશની બરાબર અનન્ત નિગોદજીના પરિમાણ છે. હવે પ્રત્યેક વનસ્પતિ કાયના જીનું પ્રમાણ કહે છેએક એક કાકાશના પ્રદેશમા, પ્રત્યેક વનસ્પતિકાયના એક એક જીવને म० ४३
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy