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________________ प्रमेयवाधिनी टीका प्र. पद १ सु १९ समेदवनस्पतिकायिकनिरूपणम् २७१ टोका - अथ पर्वकप्रकारान् प्ररूपयितुमाह- 'से किं तं पव्वगा !' 'से' - अथ 'किं तं' के ते कतिविधाः पर्वकाः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह - 'पव्यगा -अणेगविहा पण्णत्ता' पर्वका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तानेवानेकप्रकारानाह गाथाद्वयेन, 'तं जहा इक्खू य, इक्खुवाडी, वीरुणी तह एकडे य मासेय । सुठे सरेय वेत्ते तिमिरे सत पोरगणलेय' ।३१। तद्यथा - इक्षुश्च इक्षुकवाटी, वीरुणी तथा, एकडव, मापश्च । सुण्ठः शरश्च, वेत्रः, तिमिरः, शतपर्व:, नल, एतेषु केचन इक्षुप्रभृतयः पर्वक पदवाच्याः ग्रन्थियुक्ताः लोकप्रसिद्धाः सन्ति, कंचित्तु पर्वकपदवाच्याः, इक्षुवाटी प्रभृतयश्च पर्वकपदवाच्याः देशविशेषे प्रसिद्धाः अवसेयाः, एवमेव 'वंसे बेच्छू कणए, कंकावंसेय चाववंसेय, उदए कुडर, विसए, कंडावेल्लेय कल्लाणे |३२| वंशः, 'वेच्छ्रः, कनकः, कङ्कावंशथ, चापवंशश्च उदकः कुटजा: - गिरिमल्लिकाः, विसकः, कण्डा, वेल्लश्च, कल्याणः, एते च पर्वकपदवाच्याः देशविशेषे प्रसिद्धाः, " टीकार्थ - अब पर्वक वनस्पति की प्ररूपणा करते हैं - पर्वक के कितने प्रकार हैं ? भगवान् उत्तर देते हैं- पर्वक अनेक प्रकार के हैं । अब उन प्रकारों का नामनिर्देश करते हुए कहते हैं - इक्षु, इक्षुवाटी, वीरुणी, एक्कड, माष, झुण्ठ, शर, वेत्र, तिमिर, शतपर्वक और नल, इनमें से इक्षु आदि पर्वक, जिनमें गांठें होती हैं, लोक में प्रसिद्ध हैं । इक्षुवाटी आदि कई पर्वक देशविशेष में प्रसिद्ध हैं । इसी प्रकार वंश. वेच्छू, कनक, संकावंश, चापवंश, उदक, कुटज, गिरिमल्लिका, विक, कण्डा, बेल्ल, कल्याण, ये सब पर्वक देशविशेष में प्रसिद्ध समझने चाहिए । इनके अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य जो हैं उन सभी को पर्वकों में ही परिगणित कर लेना चाहिए । अब प्रकृत का उपसंहार करते हैं ટીકા—હવે પ ક વનસ્પતિની પ્રરૂપણા કરે છે— પકના કેટલા પ્રકાર છે ? શ્રી ભગવાન ઉત્તર દે છે—૫ અનેક પ્રકારના છે. હવે તે પ્રકારોના નામ નિર્દેશ કરતા કહે છે—ઇક્ષુ, ઇક્ષુવાડી. વીણી, એકકડ भाष, सुड, शर, वेत्र, तिभिर, शतपर्व, भने नम आभा क्षु विगेरे लेने ગાંઠા (કાતરીચે) હાય છે તે પ કહેવાય છે. અને તે દેશ વિશેષમા પ્રસિદ્ધ છે. ઇક્ષુવાડી વિગેરે કેટલીક પક જાતની વનસ્પતિ દેશ વિશેષમા પ્રસિદ્ધ છે, वंश, यापवंश, ४५, फुट, गिरि भदिसा, विस, डा, वेडा, उड्याणु, या पर्व। पशु देश विशेषमां प्रसिद्ध સમજવાં જોઇએ. मेरी वंश, वेच्छू, न,
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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