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जीवाभिगमसूत्र वर्तते अत्रं तु 'तणमणिसद्दविहूणो णेयन्यो' तृणमणि शब्दविहीनो वर्णन'प्रकारो ज्ञातव्य इत्येवविशेषो 'ज्ञातव्यः-अत्र वनपण्डवर्णने तृणानां मणीनां च
शब्दवर्णन न वक्तव्यम्, पद्मवरवेदिकान्तरिततया तथाविधवाताभावतस्तृणानां 'मणीनां च'चलनाभावेन परस्परसङ्घर्षाभावादिति । 'तत्थणं वहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य' तत्र-पद्मवरवेदिकान्तर्गतवनपण्डे खलु वहवोऽनेके वानव्यन्तरा देवा देव्यश्च 'आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीयंति तुयति रमंति ललंति कीडंति के वर्णन मे भी कहलेना चाहिये यहां जो तृण और मणियों के शब्द होने का निषेध किया गया है उसका कारण ऐसा है कि पद्मवर वे. 'दिका के अन्दर के भागमे होने के कारण तथाविध वातका प्रवेश वहां नहीं हो सकता है । अतः तृणों और मणियों में चलन रूप क्रिया नहीं होती है इसलिये परस्पर में संघर्ष के अभाव से शब्दोत्थान भी नहीं होता है। 'तत्थ ण बहवे वाणमंतरा देवा देवीओय आसयंति' उस भीतरी वनषण्ड में भी अनेक वानव्यन्तर देव और देवियों के गण सुख पूर्वक उठते वैठते रहते है 'सयंति' पसर कर सोते रहते हैं आरामकरते हैं । निद्रा नहीं लेते है क्यो कि देवों में निद्रा का अभाव कहा गया है, 'चिट्ठति तुयति णिसीयंति' खडे रहते हैं परिश्रमको दूर करते है करवटें बदला करते हैं 'रमंति' रमणकरते रहते हैं 'ललंति' इच्छानुसार काम करते रहते हैं 'क्रीडति' विविध प्रकार के खेलतमाशे किया करते हैं 'मोहंति' मैथून सेवन किया करते हैं इस प्रकार वे देव देवियों के गण वहां पर पूर्वभव में अच्छी तरह से किये गये अपने 'शुभकर्मों के जो कि शुभफलों के ही देनेवाले हैं । कल्याण कारक फल
તૃણ અને મણિના શબ્દ હેવાને નિષેધ કરેલ છે. એનું કારણ એવું છે કે ‘પદ્મવર વેદિકાના અંદરના ભાગમાં હોવાથી તેવા પ્રકારના વાયુ વિગેરેને પ્રવેશ ત્યાં થઈ શક્તો નથી. તેથી તૃણ અને મણિયોમાં ચલન રૂપ ક્રિયા થતી નથી. તેથી भरसं ५२स घसापान मसाथी शहन मद्दल थता नथी. 'तत्थ णं वहवे वाणमंतरा देवा देवीओय आसयंति' से मरना वनम म प मने पान०य तर हवा भने वियाना समूह सुम५ मेसता २९ छ. 'सयंति' सारीशते શયન કરે છે. આરામ કરે છે. પણ નિદ્રા લેતા નથી. કેમકે દેવામાં નિદ્રાને
मला उस छे. 'चिटुंति तुयटुंति णिसीयति' मा २९ छ. था3 तारे छ. ५४मा 'मह छ. 'रमंति' २भा ४२ छे. 'ललति' ७२छानुसार ४ाम ४२ छ. 'कीडंति' नुह
'ना मने मेरा मने तमाशायी बारा मानना ४रे छे. 'मोहंति' મિથુન સેવન કરતા રહે છે, એ રીતના એ દેવ અને વિના ગણે પૂર્વ