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________________ १५२९ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१५३ जीवानां नवविधत्वनिरूपणम् तस्य नास्त्यन्तरम् अपर्यवसितत्वात् ।। सम्प्रति प्रथमसमयकानामल्पबहुत्वं दर्शयति 'एएसि णं भंते ! पढमसमयनेरइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं-पढमसमयमणूसाणं-पढमसमयदेवाण य कयरेकयरेहितो.' एतेषां खलु भदन्त ! प्रथमसमयनैरयिक १ तिर्यग्योनिक २ मनुष्याणां प्रथमसमय देवानाञ्च कतरेकतरेभ्या ? 'गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमहैं अतः एक बार सिद्ध हो जाने पर फिर वह सिद्ध अवस्था छूटती नहीं हैं इसलिये यहां अन्तर नहीं आता है-एक बार एक अवस्था के प्राप्त हो जाने पर और उसके छूट जाने पर पुनः उसी अवस्था को प्राप्त करने में जो काल का व्यवधान होता है उसी का नाम अन्तर है ऐसी अन्तरस्थिति सिद्धों में नहीं होती है यही वात 'सिद्धस्स सादीयस्स अपज्जवसियेस्स नत्थि अंतरं' इस सूत्र पाठ छारा प्रकट की गई है। ____ इनके अल्पबहुत्व का विचार-यहां यह चार प्रकार का कहा गया है प्रथम प्रकार का अल्पबहुत्व इस प्रकार से है 'एएसि णं भते ! पढमसमय नेरइयाणे पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं, पढमसमय मणूसाणं पत्मसमय देवाण य कयरे कयरेहितो २' हे भदन्त ! इन प्रथम समयवर्ती नैरयिकों के प्रथम समयवता तिर्यञ्चों के, प्रथम समय वर्ती मनुष्यों के, और प्रथम समयवर्ती देवों के बीच में कौन किसकी अपेक्षा अल्प हैं कौन किनकी अपेक्षा बहुत हैं ? कौन किसकी अपेक्षा तुल्य हैं ? और कौन किनकी अपेक्षा विशेषाधिक हैं ? इसके उत्तर વાર સિદ્ધ થયા પછી તે સિદ્ધ અવસ્થા છૂટી જતી નથી. તેથી તે અવસ્થામાં અંતર હોતું નથી. એક વખત એક અવસ્થા પ્રાપ્ત થયા પછી તે છૂટી જાય ત્યારે ફરીથી તે અવસ્થા પ્રાપ્ત કરવામાં જે કાળનું વ્યવધાન હોય છે તેનું નામ અંતર કહેવામાં આવેલ છે. એ પ્રમાણેની સ્થિતિ અંતરની સિદ્ધોમાં હતી નથી. मr and 'सिद्धस्स सादीयस्स अपज्जवसियस नत्थि अंतरं' या सूत्रपा દ્વારા પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. તેમના અ૫ બહત્વનું કથનઅહીયાં તેમનું અલ્પ બહત્વ ચાર પ્રકારનું કહેવામાં આવેલ છે. તે 4. प्रथम प्रा२नु म८५ महत्व मा प्रभारी छ-'एएएसिणं भते पढमसमय नरइयाण पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं, पढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाण य कयरे कयरे हितो सावन मा प्रथम समयपति नैयामा प्रथम समय વતિ તિર્યમાં , પ્રથમ સમયવતિ મનુષ્યમાં, અને પ્રથમ સમયવતિ દેવામાં કોણ કેના કરતાં અલ્પ છે? કોણ કેન કરતાં વધારે છે? કે કોની બર जा० १९२
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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