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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१४५ सर्वजीवानां त्रैविध्यनिरूपणम् १४१३ अन्तरं ज्ञातुमीहा ? भगवानाह-गौतम ! अन्तर्मुहूर्तम्-उत्कर्पण वनस्पतिकालः । 'असण्णिस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुत्त-उक्कोसेणं सागरोपमसयाहुत्तं साइरेगं' असंज्ञिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्तम्-उत्कर्पण सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकम् । 'तइयस्स णत्थि अंतरं' अपर्यबसितत्वात्तृतीयस्य सिद्धस्य नास्त्यन्तरम् । 'अप्पाबहु०' एपामल्पबहुत्वविचारे 'सव्वत्थोवा सन्नी' सर्वस्तोकाः सज्ञिनः 'नो सन्नी नो असन्नी अणंतगुणा' तेभ्य उभय प्रतिषेधवर्तिनः सिद्धा अनन्तगुणाः वन स्पतिवर्जितशेषजीवेभ्यः सिद्धानामनन्तगुणत्वात् । 'असण्णी अणंतगुणा' संज्ञिहोता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतन ! संज्ञी जीव का अन्तर जघन्य से तो एक अन्तर्मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट से वनस्पति काल प्रमाण होता है 'असणिस्स अंतरं जहष्णेर्ण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेग' हे सदन्त ! असंज्ञी जीव का अन्तर कितने काल का होता है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! असंज्ञी जीव का अन्तर जघन्य से एक अन्तमुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट से कुछ अधिक लागरोपम शत पृथक्त्व का होता है 'तइयस्स णत्थि अंतरं' तृतीय जीव जो नो संज्ञी नो असंज्ञी रूप सिद्ध जीव है उसका अन्तर नहीं होता है क्योंकि वह सादि अपर्यवसित होता है। अल्पबहुत्व का विचार-'सव्वत्थोवा सण्णी' हे गौतम ! सब से कम संज्ञी जीव है। 'नो सपणी णो असण्णी अणतगुणा' इन की સંજ્ઞી જીવનું અંતર કેટલા કાળનું હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! સંજ્ઞી જીવનું અંતર જઘન્યથી તો એક અંતર્મુહૂર્તનું होय छ, मन कृष्टया वनस्पति m प्रभानु डोय छे. 'असण्णिस्स अंतरं जहण्णेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसय पहुत्तं साइरेग' में लगन् मसजी જીવનું અંતર કેટલા કાળનું હોય છે? અસંજ્ઞી જીવનું અંતર જઘન્યથી એક અંતમુહૂર્તનું હોય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી કઈક વધારે સાગરોપમશત પૃથફત્વનું होय छे. 'तइयस्स णत्थि अंतर' त्री १२ ना सही अने ना मसी રૂપ સિદ્ધ જીવે છે, તેઓનું અંતર હોતું નથી કેમકે–એ સાદિ અપર્યાવ. સિત હોય છે. અ૫ બહત્વનું ક્યન 'सध्यस्थोवा सण्णी' गौतम ! सौथी माछ। सज्ञी ७१ डोय छे. 'नो सण्णी नो अण्णी अणंतगुणा' तेना ४२di न संझी न ममी ३५ २ सिद्ध ७१ छ त मन तग छ. 'असण्णी अणंतगुणा' तेना ४२त! मसी
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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