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________________ ८४१ प्रमैयद्योतिका टीका प्रे.३ उ.३ सू५३ वनपंण्डादिकवर्णनम् क्ष्यते इति अतएव-'अविरलपत्ता' अविरलपत्राः, अत्रापि हेत्वर्थे प्रथमा, ततश्चायमयः-यतोऽविरलपत्राः, अतोऽच्छिद्रपत्राः, अविरलपत्रत्वमेव कुतस्तवाह-'अवाईणपत्ता' भवातीनपत्राः, वातीनानि वातोपहतानि वातेन पावितानीत्यर्थः न वाती. नानि इत्यवातीनानि पत्राणि येषां ते तथा अयं भावः-न तत्र प्रवलो वातः खरपरुषो वाति येन पत्राणि त्रुटिस्वा भूमौ निपतन्ति, ततोऽवातीनपत्रत्वादविरकपत्रा इति, अच्छिद्रपत्रत्वे प्रथमव्याख्यानपक्षमधिकृत्य कारणमाह-'अणाईइपत्ता' भनीतिपत्राः न विद्यते इति गडरिकादिरूपा येषां तानि अनीतीनि, अनीतीनि पत्राणि येषां ते अनीतिपत्राः, अनीतिपत्रत्वादेव अच्छिद्रपत्रा इति, “णिद्धृय जरढपंडुरपत्ता' निर्धूवजरठपाण्डुरपत्राः, निर्वृत्तानि-अपनीवानि जरठानि पाण्डुनि पत्राणि येभ्यस्ते निभुत जरठपाण्डुपत्राः, यानि वृक्षस्थानि जस्ठानि पाण्डूनि पत्राणि तानि वातेन निर्धूय निर्धूय भूमौ पात्यन्ते, भूमेरपि च नहीं दिखलाई देता है यही वात, 'अधिरलपत्ता' इस पद द्वारा पुष्ट की गई है यहां पर भी यह हेत्वर्थ में प्रथमा विभक्ति हुई है। इससे यह ध्वनित होता है कि जिस कारण ये अविरल पत्रों वाले हैं, इसी कारण ये अच्छिद्र पत्रों वाले हैं 'अवाइणपता-अवातीन पत्रा' ये अविरल पत्रों वाले इस कारण से है कि यहां पर ऐसी जोर की छचा नहीं चलती है, कि जिसकी वजह से इनके पत्र डाल से टूटकार जमीन पर तोर जावे, 'अणईहपत्ता' गइडरिकादि रूप ईति यहां पत्रों में होने नहीं पाती है इसलिये भी ये अच्छिद्र पत्रो वाले हैं, ' निर्धयजरढपंडुरपत्ता' इन वृक्षों पर जो पत्ते पुराने पड जाते है और सफेद हो जाते है वे पत्र वायुद्रारा वहां ले जमीन पर गिरादिरे जाते है तथा जमीन ऊपर पडे हुए वे पत्र भी वहां से उड। उडाकर अन्यत्र कर छिद्रो माता नथी. मे पात 'अविरलपत्ता' ये ५४थी पुष्ट ४२५ मा આવેલ છે. અહીંયાં પણ આ હેત્વર્થમાં પ્રથમ વિભક્તિ થયેલ છે. એનાથી એ વનિત થાય છે કે જે કારણે એ અવિરલ પત્રોવાળા છે, એજ કારણથી त २५२ पत्रावामा छे. 'अवाइणपचा-अवातोनपत्रा' मे मरिस पत्रवाणा એ કારણથી છે કે ત્યાં એવા જોરથી હવા નથી ચાલતી કે જેના કારણે એના पानामा थी तूट भीन ५२ ५डी तय 'अणइइ पत्ता' ग.२ि४६३५ ઈતિ આ પાનાઓને થતી નથી. તેથી પણ એ અછિદ્ર પડ્યવાળા હોય છે. "णिद्धय जरढ पत्ता' 24 वृक्ष ५२२ ५न ! कुना य नय छे. मत સફેદ થઈ જાય છે, તે પત્રો પવન દ્વારા જમીન પર પાડી નાખવામાં આવે છે. તથા જમીન પર પડેલા તે પાનડાઓને પણ ત્યાંથી ઉડાડીને બીજે લઈ
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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