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________________ .४२८ जीवामिगमले एवान्तर्भवन्ति हरितकायोऽपि वनस्पती अन्तर्भवति वनस्पतिरपि स्थावरेषु अन्तभवति, स्थावरा अपि जीवत्वेन जीवेषु अन्तर्भवन्ति ततः 'ते एवं समणुगम्ममाणा समतगम्यमाणा' ते एवं ते हरितकायादयः समनुगम्यमानाः समणुगम्यमानाः, जात्यन्तर्भावेन स्वतएव सूत्रता, तथा-'एवं समणुगाहिज्जमाणा समणु. -गाहिज्जमाणा' समनुग्राह्यमाणाः समनुग्राह्यमाणाः परेण सूत्रत, एव, तया'समणुपेहिज्जमाणा ,समणुपे हिज्जमाणा' समनुप्रेक्ष्यमाणाः समनुपेक्ष्यमाणाः, अनुप्रेक्षया अर्थालोचनरूपया तथा-'समणुचितिज्जमाणा समणुचिंतिज्जमाणा' समनुचिन्त्यमानाः समनुचिन्त्यमानाः शास्त्रयुक्तिमिः जीवत्वेन सम्यविचार्य माणाः सन्त: "एएसु दोस काएमु समोयरंति' ते हरितकायादयो जीवा एतयो रेव वक्ष्यमाणगोईयोः काययोः समवतरन्ति-समाविष्टा भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'तसकाए चेव थावरकाए चेव' त्रसकाये च स्थावरकायेचेति । एवमेव' तकाय के भेद हैं वे भी साब हरितकाय में परिगणित हुए है तथा हरिलकाय जो है वह वनस्पति में परिगणित हुआ है वनस्पतिकाय ... स्थायर जीचों में परिगणित हुआ है स्थावर जीव जीवसामान्य में अन्तर्भूत हुआ है इस प्रकार से वे हरितक्षायादिक सब 'समणु गम्म माण। २' स्वतः ही सूत्र के अनुसार समझे जाकर तथा 'समणुगाहिजखाणा २' पर जेबारा खून के अनुसार समझे जाकर 'समणुपेहिज्जमाणा २१ घार बार अर्शलोचन रूप अनुप्रेक्षा द्वारा विचार किये जाने पर 'लमणु बितिजमाणा३' युक्ति प्रयुक्तियों द्वारा अच्छी तरह से भावित किये जाने पर उनके सम्बन्ध में यही प्रतीत हो जाता है-निश्चय हो • जाता है कि ये हरितकथादिक जीव 'एतेसु दोसु काएसु समोयरंति' इन • दो ही कायों में-स्थाशकाय एवं त्रस काय में ही-अन्तर्भूत हुए हैं। यही बोत 'तसकाए चेव थावरक्षाए चेव' इस पत्र पाठ से प्रकट की છે. તથા હરિતકાયને વનસ્પતિમાં ગણવામાં આવેલા છે. વનસ્પતિકાય સ્થાવર જીમાં ગણવામાં આવેલા છે. સ્થાવર જી જીવ સામાન્યમાં અંતર્ભત थया छे. या प्रमाणे तताय वि२ मा 'समणुगम्ममाणा समणुगम्म माणा' पार पा२ मथना मोष साथे विया२ ४२di Rai तथा 'समणुगाहिज्जः माणा २' मीना द्वारा सूत्र प्रमाणे समलने 'समणुपेहिज्जमाणा २' पार पा२ मावायन ३५ मनुप्रेक्षा द्वारा विया२ ४२di ४२ai 'समणुचिंतिज्जमाणा' 'समणुचिंतिज्जमाणा' युठित प्रयुतिय द्वारा सारीरी ललित ४२वामा આબેથી તેઓના સંબંધમાં એમજ જણાય છે, અર્થાત્ નિશ્ચય થઈ જાય छ ४ मा रिताय विगरे । 'एतेसु दोसु काएसु समोयरंति' स्थावाय,
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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