SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवाभिगम विविच्य सूत्राणि स्वयमेवोहनीयानीति | 'इमीसे ण भंते ! रयणावमाए पुढवीए नेरइया' एतस्यां खल भदन्त ! रत्नप्रमायां पृथिव्यां नारकाः, 'केरिसयं आउ. प्फासं पच्चणुभवमाणा विहरंति' कीदृशं किमाकारकम् अपस्पर्श-जनस्पर्शप त्यनु भवन्तः वेदयमाना विहरन्ति तिष्ठन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणिटुं जाब असणाम' अनिष्टम् यावद् अकान्तम् अप्रियम् अमनोज्ञम् अमनोऽमम् अपस्पशमनुभवन्तोऽवतिष्ठन्ते इति । एवं जाव अहेसत्तमाए' एवं यावत् शर्कराप्रभा पृथिवीत आरभ्य स्मरतमापृथिवी पर्यन्तं नारकाणाम स्पर्शोऽनिष्टत्वादिगुणोपेतो ज्ञातव्य इति । 'एवं जाव रणरसइफासं हेसत्तमाए पुढवीए' एवं यावद्वानस्पति स्पर्श मधासप्तम्यां पृथिव्याम् इति । एवम्-एवमेव पर्यन्त के सूत्रों का आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भादित्त कर लेना चाहिये अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभा पुढवीए नेरइया' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नरयिक केरिसयं आउफासं पच्चगुभवमाणा' जल स्पर्श कैसा अनुभवते हैं ? अर्थात रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिकों को जल का स्पर्श किस प्रकार प्रतीत होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गौयमा अणिढे जाव अमणाम' रत्नप्रभा के नैरयिकों को जलका स्पर्श अनिष्ट यावत् अमनोऽम होता है एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी तरह से द्वितीय पृथिवी के नरपिकों से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी तक के जो नैरपिक है उन्हें भी जलका स्पर्श अनिष्ट यावत् अमनोऽम ही होता है 'एवं जाव वणस्सहफासं अहे सत्तमाए पुढवीए' इसी प्रकार से यावत् तेज का स्पर्श, और वायु का स्पर्श भी उन्हें अनिष्ट यावत् अमनोऽम व गौतमस्वामी प्रभुने से पूछे छे हैं 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभा पुढवीए नेरहया' मावन मा २त्नप्रभा पृथ्वीमा नैयिही 'केरिसय जाउफास पच्चणुभवमाणा' 4 सना २५शन मनुमप ४२ छ ? अर्थात् २त्नप्रमा પૃથ્વીના નૈરયિકને જલને સ્પર્શ કેવા પ્રકારથી જણાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु श्री गौतमपामीर ४ छ । 'गोयमा ! अणिट्र जाव अमणाम' २नमा पृथ्वीना नरयिही सन २५श मनिष्ट यावत् ममनोऽभ डाय छे. 'एवं जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभारी भी पृथ्वीना नैयिाथी ४२ अध:सभी પૃથ્વી સુધીના જે નારકછ છે. તેમને પણ જલને સ્પર્શ અનિષ્ટયાવત અમને ઇમ हाय छे. एवजाव वणसइफास अहे सत्तमाए पुढवीए' मे प्रमाणे यावत् तेना પર અને વાયુને સ્પર્શ પણ તેઓને અનિષ્ટ યાવત્ અમનેડમ હોય છે.
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy