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________________ मेयद्योतिकाटीका प्र.३ ७.२ ७.२१ नारकाणा नरकयानुभवननिरूपणम २९३ हरन्तीति-तिष्ठन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे तिम! 'तेणं तत्थ णिच्च भीता' ते खलु नारका स्तत्र-रत्नप्रभानरके नित्यम्वकाले क्षेत्रस्वभावज महानिविडान्धकारदर्शनतो भीताः सर्वतः समुपजात कृत्वात् । तथा-णिञ्च तसिया' नित्यं प्रस्ताः नित्यम्--सर्वकालं क्षेत्रस्वभावम हानिविडान्धकारदर्शनतस्त्रस्ता:-अतिशयेन भयमीता:-परमधार्मिकदेव परस्पदीरित दुःखसंपातभयात् त्रासमुत्पन्नाः । तथा-'णिच्चं छुहिया' नित्यं सर्च लं क्षुधिता:-क्षुधया व्याप्ताः। तथा-'णिच्चं उचिगा' नित्यं सर्वकालमुग्नाः परमाधार्मिकदेव परस्परोदीरित दुःखानुभवतः तद्गतावासपराङ्मुख. वत्ताः तथा-'णिच्च उपप्पुआ' नित्यं-सर्वकालम् उपप्लुता उपालवेनोपेता कस प्रकार के होकर नैरपिक अब का 'पच्चणुभवमाणा विहरंति' अनुभव करते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'गोयमा ! तेणं तत्थ गच्च भीता' हे गौतम ! वे नारक वहां नरक में सर्वदा भयभीत होकर त्रि स्वभाव से जन्य महागौढ अन्धकार के देखने से चारो ओर शङ्का क्त होकर-तथा-णिच्चंतसिता' सर्वदा क्षेत्र स्वभाव से जन्य अन्धकार के देखने से घबडाये हुए होकर अथवा-परमाधार्मिक देवों के परा आपस में एक दूसरे के पूर्वभवीय वैरो को प्रकट करने के कारण 'दला लेने 'रूप कष्टो के आने से दुखित होकर तथा-'णिच्चं इहिया' सर्वदा भूख से पीडित होकर 'पिच्चं उब्बिग्गा' सर्वदा द्विग्न होकर-खेद खिन्न होकर-परमाधार्मिक देवों द्वारा आपस में [द कराये गये पूर्वभवों के वैरों के कारण एक दूसरे के आवास से राहमुखचित्त होकर नित्य 'उपप्पुआ' उपद्रव युक्त होकर उस णिच्चं २॥ धन नरथि अपना 'पच्चणुभवमाणा विहरति' अनुभव ४२ छ, मा प्रशन उत्तरमा असु गीतमस्वामीन छ । 'गोयंमा ! ते णं 'तत्थ, णिच्च भौता' है. गौतम! नार? त्यां न२मा सही मयलीत यधने क्षेत्रमाथा થવા વાળા મહા ગાઢ અંધકારને લેવાથી ચારે બાજુની શંકા યુકત યઈને तया 'णिच्चं तसिता' सहा क्षेत्रमाथी थवावाणामधाराने नेपाथी - કરાયેલા થઈને અથવા પરમધામિક દેવે દ્વારા પરસ્પર એક બીજાના પૂર્વભવ ના વેરેને પ્રગટ કરવાના કારણે બદલે લેવા રૂપ દુખે આવવાથી દુઃખિત 'न तथा ‘णिच्चं छुहिया'मेशा भूमया पीछन जिच्चं उब्विग्गा सही ઉદ્વિગ્ન થઈને અર્થાતું ખેદ ખિન્ન થઈને પરમધાર્મિક દેવે દ્વારા પરસ્પર યાદ કરાવવામાં આવેલ પૂર્વભવના વેરના કારણે એકબીજાની રહેઠાણથી પરાક भुम यित्ता ७२ नित्य 'उपप्पुआँ उपद्रवाया थने 'णिच्चं परमम
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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