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________________ ૨૬૮ जीवांभिगमसूत्रे दधः सप्तम्याम् रत्नमभानारकवदेव शर्करामभा वालुकामभावङ्कममा धूमममा तमः प्रभा तमस्तमःप्रभा नारका अपि साकारोपयोगयुक्ता भवन्ति अनाकारोपयोगयुक्ता - अपि ज्ञानापेक्षया साकारोपयुक्ता दर्शनापेक्षया अनाकारोपयुक्ता भवन्तीति भावः । नैरयिकाः कियत्परिमितं क्षेत्र जानन्ति पश्यन्तीत्याह - 'इमी से णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए नेरहया' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां : पृथिव्यां नैरयिका: 'ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति पासंति' अवधिज्ञानेन कियत् क्षेत्रं जानन्तीति नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम! 'जहन्ने णं अट्टगाउयाई' अर्द्ध चतुर्थानि सार्द्धानि त्रीणि गव्यूतानि 'उक्को सेणं चत्तारि गाउयाई' उत्कर्षेण चत्वारि गव्यूतानि जानन्ति पश्यन्तीति चेति । 'सकरपभाए पृथिवी तक के नारक जीव भी दोनों प्रकार के उपयोग वाले होते हैंऐसा जानना चाहिये अर्थात् द्वितीय पृथिवी के नैरयिकों से लेकर सप्तमी पृथिवी के नैरयिक भी दोनों प्रकार के उपयोग वाले साकारो पयोग वाले और निराकारोपयोग वाले होते हैं । ज्ञान की अपेक्षा सारोपयोग वाले होते हैं और दर्शन की अपेक्षा अनाकारोपयोग वाले नारक होते है । • अब नैरथिकों के ज्ञान के विषय में कहते हैं- 'इमीसे णं भंते! रण पुढीए नेरया' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नैरधिक 'ओक्षिणा' अवधिज्ञान से 'केरइयं खेत्तं जाणंति पासंति' कितने क्षेत्र को जानते हैं और कितने क्षेत्र को देखते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोमा ! जहत्रेण अट्टगाउयाई उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई' हे गौतम । रत्नप्रभा पृथिवी में नैरयिक कम से कम अवधिज्ञान से साढे तीन ३|| कोश तक के पदार्थों को जानते हैं और उत्कृष्ट से चार कोश तक અધઃસપ્તમી સુધીના નારક જીવે પણુ ખન્ને પ્રકારના ઉપચેગ વાળા એટલે કે મીજી પૃથ્વીના નૈયિકાથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નૈરિયા સાકાર ઉપચાગવાળા પણુ હોય છે. અને અનાકાર ઉપયોગવાળા પણુ હાય છે. ડાય છે. જ્ઞાનની અપેક્ષાએ સાકારાપયેગ વાળા હાય છે, અને દશનની અપેક્ષાએ અનાકારાપયેાગવાળા હાય છે. हुवे नैरयिना ज्ञानमा संघमा थन खाभांगावे छे 'इमीसे णं भवे रयण पभाए पुढदीए नेरइया' हे भगवन् सा 'ओहिणा' अवधि ज्ञानथी 'केवइय' खेत्तं जाणंति पासंति' डेंटला क्षेत्रने भये રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં નૅરિયકો છે, અને કેટલા ક્ષેત્રને દેખે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વાંમીને ४ 'गोयमा ! जहणेणं अद्धट्ट गाउयाइ उक्केासेण चत्तारि गाउयाई' से
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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