SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् २६७ जोगी वइजोगी कायजोगी' किं मनोयोतिनो वचोयोगिनः काययोगिनो वेति प्रश्नः, भगवानाद -'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिणि वि' प्रयोऽपि हे गौतम ! रत्नपभानारका मनोयोगिनो भवन्ति वचोयोगिनोऽपि भवन्ति काययोगिनोऽपि भवन्तीति । एवं जाव अहेसत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् रत्न प्रभा नारकवदेव शर्करामभात पार समस्तमापर्यन्त नारका मनोयोगिनोऽपि भवन्ति वचो योगिनोऽपि भवन्ति काययोगिनोऽपि भवन्तीति ज्ञातव्यमिति । सम्पति--साकारानाकारोपयोग दर्शायमाह-'इसीसे णं भंते !' एतस्या खल्ल भदन्त ! 'रयणप्रसाए पुढवीए मेरइया' रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किं सागारोपउत्ता अणागारोवउत्ता' रिसाकारोपयोगयुक्ता भवन्ति अनाकारोप. योगयुक्ता वा भवन्तीति भश्नः, भभवाना-गोरा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सागारोवउत्तावि अनागारोबउत्तावि' साकारोपोगयुक्ता अपि भवन्ति रत्नप्रभानारका स्तथा अनाकारोषयुक्ताभविमान्तीति । एवं जाव अहेलत्तमाए' एवं याव मणजोगी, वहजोगी कायजोगी' च्या मनोयोगी होते है ? या वचनयोगी होते हैं या काययोगी होते है ? उन्तन मनु शाहते है-'गोयमा तिपिण वि' हे गौतम ! प्रथम पृथिवी के वधिक तीनों योग वाले होते हैं। - 'एवं जाव अहे समतमाए' ही तरह से द्वितीय पृथिवी के नैयिको से लेकर सातवीं पृथिवीं तक के नैरयिक भी तीनो योग वाले होते है। __ अब सूत्रकार उपयोग हार का सामान करते हैं। रत्नप्रभा पृथिधी के नरयिक 'कि सामारोजउत्ता अजय इत्ता' क्या लाकारोपयोग वाले होते हैं ? या अनाकारोपयोग बाले रोते है? तर में प्रभु कहते हैं-'गोथमा। सागारोवउत्ता वि अनागारोवता वि' हे गौतम! रत्नमा पृथिवी के जीव खासारोपयोग वाले भी होते हैं और अनाजारोपयोग वाले भी होते हैं। 'एवं जाच आहे मतभार इस तरह से यावत् अवाससमी 'कि' मणजोगी, वइजोगी, काय जोगी' शु. मनये डाय ? અથવા વયન ચોગવાળી હોય છે ? કે ઠાથ ચગવાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४१ छ गोयमा ! तिणि वि' हे गौतम ! ५३दी पीना नयि त्र येnanाय छ 'एय जार अहे सत्तमार' मारी प्रभाग બીજી પૃથ્વીના નિરયિકોથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નિરયિકે પણ ત્રણે પ્રકારનાં ગવાળા હોય છે. २त्नप्रभा पृथ्वीना नैरायो। 'कि सागरावउत्ता अणागारोवता' सार ઉપગવાળા હોય છે ? કે અનાકાર ઉપ વાળા હોય છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४३ छ -'गोयमा! सागरोच उत्ता वि अनागारोव उत्ता वि' गौतम। રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારક જી સાકાર ઉપગવાળો પણ હોય છે, અને અનાકાર 64211 डाय छे. 'एव' जाव अहे खत्तमाए मार प्रमाणे यावत
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy