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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ५.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् सर्वपुद्गलाः एककालं तभायेन प्रविष्टपूर्वाः किमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोथमा' हे गौतम ! 'दमीसे णं श्यणप्पमाए शुढभीए' एतस्यां खल रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सबपोग्गला पविठ्ठपुया' लोकोदरवर्तिनः सर्ने पुद्गला. प्रविष्टपूर्वा तदभावेन परिणतपूर्णः संसारस्थानादित्वाब को चेवणं सव्वषोग्गला पविट्ठा' नैव खल्लु न.पुनरेककालं लवपुद्गला प्रविष्टा स्तभावेन परिणताः, सर्व पुद्गलानां तद्भावेन परिणतौ रत्नशमा पतिरेक्षणान्या सर्वत्र पुद्गलाभावप्रसङ्गात् न चैवं संभवति तथा जगत्स्वाभाज्यादिति । ‘एवं जाव अहे सत्तमा' एवं यावदधः समभ्याम् एवं रत्नममा पृथिवीवदेव सर्वासु शर्करादि पृथिवीषु से-परिणत हुए हैं ? था युगपत् प्रविष्ट हुए हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! हमी सेणं रयणयमाए पुढचीए खच पोराला पविठ्ठ पुवा' हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी ने समस्त लोकावर्ती पुद्धल क्रमश: प्रविष्ट हुए हैं 'लो चेश सव्व पोग्गला पचिट्ठा' वे एक साथ सभी पुनल वहां प्रविष्ट नहीं हुए हैं क्योंकि यदि एक ही साथ्य समस्त पुगल रत्नप्रभा पृथिवी में प्रविष्ट हुए हैं ऐली बात मान ली जाये तो फिर शर्करा. प्रभा आदि पृथिवियों में पुद्गलों का प्रवेश हुआ नहीं माना जा सकता है अतः यही मानना चाहिए की समस्त पुगलों का प्रवेश रहनादि पृथिवियों में क्रमशः ही हुआ है-अर्थात् क्रम २ ले ही समस्त पुद्गल जगत के स्वभाव की विचित्रता होने से रत्नप्रभा आदि रूप से परिणत हुए हैं एवं जाव अहे खतमा' रत्नप्रभा पृथियों के विषय में जैसे कहा गया है-वैसे ही शार्क राषमा पृथिवी से लेकर सातवीं AL प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामी ४ छ , 'गोयमा! इसीसेण रयणप्पभाए पुढवीए वन पोग्गला पविटुपुव्वा' गौतम ! ! प्रमा पृथ्वीमा सघn aalत पुसा भ पू४ प्रवेशमा छे. 'नो चेव सव्व पोग्गला पविद्वा' त्या तमामधा सीनाथे प्रवेशमा नया भने ४ साथे સઘળા પુદ્દગલો રત્નપ્રભા પૃત્રીમાં પ્રવેશેલા છે, એ વાત માની લેવામાં આવે પછી શર્કરપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીમાં પુદ્ગલોને પ્રવેશ થયો તેમ માની શકાય તેમ નથી. તેથી એમજ માનવું જોઈએ કે બધાજ પુદ્ગલેને પ્રવેશ રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીમાં ક્રમથી જ થયેલ છે. અર્થાત્ કમક્રમથીજ સઘળા પગલે જગતના સ્વભાવની વિચિત્રપણાથી રત્નપ્રભા વિગેરેપણથી પરિણત થયેલ છે. ‘एवं जाव अहे मत्तमा' २नमा पृथ्वीन समयमा प्रभातु थन
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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