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________________ जीवामिगमक्ष इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! इसीसे गं स्यणप्पभाप पुढवीए' एतस्यां खलु रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सन्च जीवा' सर्वजीवाः प्रायो वृतिमाश्रित्य सामान्येन 'उववन्नपुवा' उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेग संसारस्य अनादित्वात् 'जो चेव णं' नो चैव खल्लु-न पुनः 'सबजीवा उववन्ना' उत्पन्ना: युगपत् सकल जीवाना मेककालं रत्नममायामेव नरामरनारकादि भेदाभावपसंगात्, न चैवं संभाति जगत्स्व. भावस्य तथाविधत्वात् इति । एवं जाव आहे सत्तमाए पुढची' एवं रत्नममावदेव यावदध: सप्तम्यां पृथिव्यां मतिपत्तव्यम् । एवं पद्धमभात आरम्य तमस्तमा पर्यन्त पृयिव्यां जीवाना मुत्पाद पकारस्त निषेध प्रकारश्च स्वयमेव ज्ञातव्य हुए हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयना! इसीसेणं स्यणप्पमाए पुढवीए सव्व जीवा उचवन्नपुव्वा, णो चेव णं सरजीना उचचण्णा' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी में समस्त जीव प्रायः कर के क्रम २ कर उत्पन्न हो चुके हैं, परन्तु एक साथ सघ जीव उत्पन्न नहीं हुए हैं। क्यों कि एक साथ-एक काल में समस्त जीवों का उत्पाद यदि रत्नप्रभा पृथिवी में हुआ मान लिया जावे तो नर, अमर, नारक और तिर्यश्च रूप भेद का अभाव मानना पडेगा परन्तु ऐसा तो सम्भावित होता नहीं है क्यों कि जगत का स्वभाव विचित्र है एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' इसी तरह से यावत् अधः सप्तमी पृथिवी तक की समस्त पृथिवियों में भी समस्त जीव काल कम से ही उत्पन्न होते है युगपत् सब जीव वहां उत्पन्न नहीं हुए हैं ऐसा जानना चाहिये इस विषय में आलापक हम प्रकार करना चाहिये-हे भदन्त ! शर्कराप्रभा पृथिवी Aal Xl Sत्तरमा प्रभु गौतम स्वामीन ४९ छ 'गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववन्नपुव्वा, णो चेव णं सव्वजीवा उववण्णा' હે ગૌતમ! આ રત્નપભા પૃથ્વીમાં સઘળા જી પ્રાયઃ કમે કરીને ઉત્પન્ન થયા છે પરંતુ એકી સાથે સર્વ જી ઉત્પન્ન થયા નથી કેમકે એકસાથે એક કાળમાં સઘળા જીને ઉત્પાદ-ઉત્પત્તી જે રાનપ્રભા પૃથ્વીમાં થયો છે, તેમ માની લેવામાં આવે, તે નર, અમર, નારક, અને તિર્યંચ રૂપ ભેદને અભાવ માનવે પડશે. પરંતુ એવું તે સંભવતુ નથી, કેમકે જગતને સ્વભાવ वियित्र छे एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' से प्रभारी अधःससभी पृथ्वी પર્યંતની સઘળી પૃથ્વીમાં પણ સઘળા છે કાળ ક્રમથીજ ઉત્પન્ન થાય છે, યુગપત સૌ જીવે ત્યાં ઉત્પન્ન થયા નથી. તેમ સમજવું આ વિષયમાં આલાપકો આ નીચે પ્રમાણે કરવા જોઈએ હે ભગવદ્ આ શર્કરામભા પૃત્રીમાં શું સઘળા જી કાલક્રમથી ઉત્પન્ન થયા છે? અથવા
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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