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[५ विवरणसे अच्छी तरह बोध हो सकेगा, क्यों कि-वीतरागकी सावध पूजा कर्म यन्धका ब संसारपरिभ्रमण का कारण बताया है । जैसे कि
जो सावज्जसपजं, कुणड महाचाइवीयरागस्स । सो भम्मइ संसारे, दीहं कालं जहाजाओ ॥१॥ सावजसपज्जाए, ससुम्भवड जीवहिंसणारंभो ।
तम्हा बज्जड कम्म, तेण य संसारचक्कसंपाओ ॥२॥ इसी प्रकार
"पंचहि ठाणेहिं जीवा दुग्गई गच्छन्ति तंजहा-पाणाइवाएणं, सुसावाएणं, अदिन्नादाणेणं, मेहुणेणं, परिग्गडेणं ।"
(स्थानाइ ५ स्था, १ उ०,) सांसारिक कार्य करने में भी जब पांच कारणों से जीव को दुर्गति होती है तो फिर बीतराग धर्म के नामपर हिंसा अथवा आरम्भ हो तो उसमें धर्म कैसे मोनाजाय । यदि कोई यू कहे किभक्तिदश धर्मकार्य करते हुए, प्रशुअर्चना करने में होनेवाली हिंसा कर्मयन्धका कारण नहीं परन्तु शमनिर्जरा काही कारण माना जाता है।
तब तो कालिका, अम्बा, भैरव आदि लौकिक देवों के सामने उनको माननेवाले भक्ति वशले बकरे, पाहे चढाते हों-मारते होंतो क्या उसमें भी कर्मनिर्जरा ही मानी जाय ? ।
यदि उन लौकिक देवों के नाम पर होनेवाली हिंसा में पाप मानते हैं तो फिर जिन वीतराग प्रभुने बाह्य पदार्थों के लोगोपभोगोंको त्यागकर ससार से मुक्त दशा प्राप्त की, उन्हीं के नामपर आरम्भ करने में धर्म कैसे हो सकता है ? | इस विषय को बीकाकारने ठीक तरह से प्रतिपादित किया है। पांच प्रकार के अभिगम में भी पहले सचित्तव्य को त्यागने का ही नामोह विधान बताया है। इस प्रकार लावतरमा प्रकारप में मासय पूजा शिव कीज तरह रे मरमाया नगा है !