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________________ अनगारधर्मामृतवपिणोटीका अ १सू.३७ मेघकुमारदीक्षोत्सवनिरूपणम् ४२७ यावद् 'जीविओसासिए' जीवितोम्वासका=ज वित प्राणधारण उच्छासयति वर्धयति इति सः अस्माकं प्राणधारक इत्यर्थः 'यियाणंदजणए' हृदयानन्दजनकः ' अन्तःकरणप्रमोदकारकः किं बहुना उटुंबरपुष्पमिव श्रवणेऽपि दलेभः किं पुनः हे अङ्ग! दर्शने हे प्रभो ! 'से जहानामए' अथ यथानामसम्यथादृष्टान्तम् , 'उप्पलेति वा' उत्पलं-नीलकमलं, 'पउमेतिवा' पद्म-सूर्यवि. काशिकमलं, 'कुमुदेति वा' कुमुदं चन्द्रविकाशी श्वेतक नलविशेपः, 'पके जाए' पड़ जातं-उत्पन्नं 'जले संथिए' जले संवद्धितां-वृद्धिमुपागतं किन्तु 'क रयणं' पंकरजसा पंकएव रजः पंकरजः तेन कर्दमेन 'नोबलिप्पइ' नोपलिप्यते, एवं 'जलरएणं' जलरजसा 'नोवलिप्पड़' नोवलिप्यते एवामेव' एवमेव अनेनैव ऐसा कहा-(एसणं देवाणुप्पिया । मेहे कुमारे) हे देवानुप्रिय ! यह मेघकुमार (अम्हं एगे पुने ) हमारे यहां एक ही पुत्र है--(इढे कंते जाव जीवियोसासिए ) इसलिये यह हमें इप्ट है और कांत है यावत् जीवितो च्छवासभूत है। अर्थात् हमारे प्राणों का आधारभूत है। (हिययाणंदजपए) हृदय को आनन्द पहुँचानेवाला है। (उबरपुप्पंपिक दुल्लहे. सवणयाए किमंगपुणदरिसणयाए) हे नाथ जिस प्रकार उद्र के पुप्प के दर्शन को तो बान दर रही उसका नामश्रवण भी जैसे दुर्लभ हैं उसी तरह प्रभो हमें भी इसका नाम श्रवण दुर्लभ है। (से जहाना मए उप्पलेइ वा कुसुदेइ वा पंके जाए जले सर्वाए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं) जिस प्रकार नील कमल, सूर्य विकासमी पद्म और चन्द्र विकाशी कुमुद कीचड़में उत्पन्न होते हैं, जलमें बढते हैं किन्तु पंकजरूप रज से तथा जलरूप रज से वे उपलिप्त नहीं होते हैं ( एवामेव प्रिय 1 20 मेघgभार (अम्हं एगे युत्ते ) समारो मेनो २४ पुत्र छ (इले कंते जाव जीवियोसासिए) मेटसा भाटे मा मभने ष्ट भने त छ यावत् वितो२७पास भूत भेटवे २मा मभाप्राणाने। माधार छ (हिययाणंदजणए) हृयने मान ५भाउना२ छ, (उंबरपुप्फपिव दुल्लहे सवणयाए किमंगपुणदरिसणयाए) है नाय । म १२ना(भ२11)५०पनी नेवानी वात तो દૂર રહી પણ તેનું નામ સાંભળવું પણ દુર્લભ છે, તેમજ હે પ્રભો ! અમને પણ या भेधभार नाम साम पा हुल तु. (से जहा नामए उप्पलेइ वा कुमुदेइ वा पंकजाए जले संवडिए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पड़ जलरएणं) रेवी शत नीद ४मा, सूर्य विशी ५५, भने यन्द्र विशी કુમુદ કાદવમાં ઉદભવે છે, પાણીમાં વધે છે છતાં એ કાદવ રૂપ રજથી તેમજ પાણુ ३५ २०४थी तमा मलिप्त रहे छ ( एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेस
SR No.009328
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages770
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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