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________________ भगवतीस्त्र भगी दर्शिता तथैव एकेन्द्रियपृथिव्यादित आरभ्य वैमानिकान्त सर्वदण्ड केषु लेश्यादित आरभ्य अनाकारोपयोगान्त सर्व पदानाश्रित्य सर्वत्र चतुर्भङ्गन्यादि विचारः कर्तव्य इति । दिशेपमाह-'जस्स जं अस्थि तं एएणं चेव कमेणं भाणि'यन्त्र' यस्य जीवस्य यत् लेश्यादिकमस्ति विद्यते तस्य वत् लेश्यादिकम् एतेने'वोपरिदर्शितेनैव प्रकारेण चतुर्भङ्गन्यादिरूपेण भणितव्यं वर व्यमिति । कथमिवे. स्वाह-'जहा पावेणं दंडओ' यथा पापेन दण्डका चतुर्भगीकः कृतः, एवम् ‘एएणं कमेणं असु वि कम्मपगडीसु अट्टदण्ड गा पाणियबा जीवादीया वेमाणिय पज्जवलाणा' एतेनोपरिदर्शितेन क्रमेग प्रकारेणाप्यास्त्रपि कर्मपतिपु अप्टौ 'दण्डका भणितव्या जीवादिका वैमानिरूपर्यवसानाः ज्ञानावरणीयाघारभ्य अन्त. रायपर्यन्तेषु नारकवदेव जीवादारभ्य वैमानिकपर्यन्तेषु दण्ड के निर्यातव्य इति । एकेन्द्रिय पृथिवी आदिकों से लेकर वैमानिकान्त समस्त दण्डकों में लेश्याआदि से लेकर अनाशारोपयोगान्त तक अपने अपने योग्य सर्व पदों को लेझार सर्वत्र चतुभंगी का विचार करना चाहिये । 'जं जस्स अस्थि तं एएणं चेच कमेणं भाणियवं' परन्तु इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि जिस जीव के जो लेश्यादिक है वे उसी जीव के ऊपर में दिखाये गये प्रकार के अनुसार चतुर्भगी आदि रूप से कहना चाहिये 'जहा पावणं दंडओ' जैसा पाप के साथ चतुर्भगी कृत दण्डक कहा गया है वैसा ही दण्डक 'पएणं कमेणं अस्तु चि कारमपगडीसु' इसी फम ले आटों कर्म प्रकृतियों में भी अदंडगा भाणियाया' आठ दण्डक कहना चाहिये-'जीवादीधा बेमाणियएज्जबहाणा' अर्थात् जीव से लेकर वैमानिक तक के पदों में जालावरणीय आदिकों के सम्बन्ध में आठ दण्डक पूर्वोक्त चार अंगोवाला घना-बना कर कहना चाहिये, કાયિકથી આરંભીને વૈમાનિકે સુધી સઘળા દડકેમાં લેસ્થા વિગેરે ને લઈને 'અનાકારા પગ સુધીના પદને લઈને બધે જ ચાર ભંગાત્મક વિચાર સમજ. जं जस्स अस्थि त एएणं चेव कमेण भाणियव्यं' परतु को ध्यास ' અવશ્ય રાખવો જોઈએ કે-જે જીવને જે લેસ્થા વિગેરે કહ્યા છે. તે જીવને તે લેશ્યા વિગેરે ઉપર બતાવેલા પ્રકાર પ્રમાણે ચાર ભંગ પણાથી કહેવા नय. 'जहा पावेण दंडओं' प्रमाणे ५५४ ना स स यतुम11म 11 ह्या छ, मेरी प्रमाणुना एएणं कमेणं असु वि कम्मपगडीसु' मा भयो मा ४ प्रतियामा ५ 'अदुदंडगा माणियव्वा' मा का 'जीवादीया वेमाणियपनवसाणा' थी मारलीन वैमानि: સુધીના પદેમાં જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે કર્મોના સંબંધમાં પૂર્વોક્ત ચાર ભાગ
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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