SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 670
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૩૯૮ भगवती सूत्रे 'व्वं जाव अणतखुत्तो' एवं कृतयुग्म कृतयुग्मसंक्षिपञ्चेन्द्रिययुग्मेषु उपपातादारभ्य अनन्त कृत्वः समुत्पन्न पूर्ण इति कथितं तथैव 'सोलससु विवि जुम्मे भाणियन्वं जाव अनंत खुती' पोडशप्यपि द्वितीय कृतयुग्म ज्योज संज्ञिपञ्चेन्द्रियत आरभ्य याaa seयोजकल्यो संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तेषु युग्मेषु भणितव्यं यावद् अनन्त कृत्वः अनन्तशस्तद्रूपेण पूर्वं समुत्पन्ना इति पर्यन्तमिति भावः । ' नवरं परिमाणं जहा वे दियाणं' नवरं कृतयुग्म कृतयुग्म संञ्चेन्द्रियाणां यथा द्वीन्द्रियाणां पोडश, संख्याता वा असंख्यातावेति । 'सेसं तहेब' शेषं परिमाणव्यतिरिक्त मुपपातादिकं तथैव पूर्ववदेव पूर्वोक्त प्रथमयुग्मवदेव प्रथमयुग्मे यत् यथा कथितं तत्सत्रं तथैव भाणि जाव अणतखुत्तो' इसी प्रकार से 'कृनयुग्म कृतयुग्म संज्ञी पचेन्द्रियों में समस्त प्राणादि जीवों का जैसा उपपात से लेकर अनन्त बार तक का उपपात हो चुकना कहा गया है 'द्वितीय कृतयुग्म योज संज्ञिपंचेन्द्रिय रूप से उनके उपपात को लेकर यावत् कल्योज कल्योज संज्ञिपचेन्द्रिय पर्यन्त सुग्मों में ये अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं ऐसा कह लेना चाहिये । 'नवर' परिमाणं जहां वे दियाणं' हीन्द्रिय जीवों का जैसा परिमाण १६ अथवा संख्यातआदि रूप से कहा गया है उसी प्रकार से इन कृतयुग्म कृतयुग्मादि सशिपचेन्द्रिय जीवों का भी परिमाण जानना चाहिये | 'सेसं तहेब' परिमाण से अतिरिक्त उपपात आदि जिस जिस प्रकार से प्रथम युग्म में कहे गये हैं वैसे ही वे सब जानना चाहिये 'सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति' हे भदन्त | जैसा आपने यह कहा है वह सब छे, ' एवं ' खोलससु वि जुम्मेसु भाणियव्व जाव अणतखुत्तो' मा४ प्रभा કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મ સન્ની પંચેન્દ્રિામાં સઘળા પ્રાણ વિગેરે જીવેાના ઉપપાતથી લઈને અનંતવાર સુધીના ઉપપાત થઈ ચૂકયા છે, એ કથન સુધી જે રીતે કહેલ છે, એજ પ્રમાણે બીજા મૃતયુગ્મ ચૈાજ સન્નિપ ́ચેન્દ્રિય પણાથી તેના ઉપપાતથી લઈ ને યાવત્ કલ્યે!જ કલ્યેાજ સ'ની પચેન્દ્રિય પયન્તના યુગ્મામાં तेथे। मनतवार उत्पन्न अर्ध शुभ्या छे. ते हे' ले थे. 'नवर' परिमाण' जहा बेइ दिथाण" मे इन्द्रिय वानुं परिभाष के प्रभा १६ सोण गथवा સખ્યાત અથવા અસખ્યાત પણાથી કહેલ છે, એજ પ્રમાણે આ કૃતયુગ્મ द्रुतयुग्य संज्ञी पथेन्द्रिय कवोनु परिभाशु य समन्वु 'सेस तदेव' પરિમણુ શિવાય ઉત્પાત વગેરે જે રીતે પહેલા યુગ્મામાં કહેલ છે. તેજ પ્રમાણે તે સઘળું કથન સમજી લેવુ. 'सेव भते । सेव' भंते | त्रि' हे भगवन आप देवानुप्रिये मे मा विषयना
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy